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________________ ६४ / जैन दर्शन के मूल सूत्र * अरहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। * अरहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि। भक्ति का सबसे बड़ा सूत्र है-शरणागति, शरण में चले जाना। जैन-दर्शन में शरणागति का सिद्धान्त मान्य है। अर्हत् की शरण में जाना, सिद्ध की शरण में जाना, साधु की शरण में जाना, धर्म की शरण में जाना- यह शरणागति की मान्यता है। यह भक्ति का मार्ग है। जैन-दर्शन आदर्शवादी भी है और भक्तिवादी भी है। यह धर्म आस्था को बल देने वाला धर्म है। जैन-दर्शन में आस्था के लिए पूरा अवकाश है और अपने आपको परमशक्ति में विलीन करने का भी अवकाश है। स्वतन्त्रता के लिए भी पूरा अवकाश है। दोनों साथ-साथ चलते हैं। स्वतन्त्रता भी और समर्पण भी। समर्पण का अर्थ विलीन हो जाना नहीं है, किन्तु एकात्म या तद्रूप हो जाना है । तात्पर्यार्थ में स्वयं अर्हत् बन जाना है। यह नर से नारायण बनना है, नारायण में विलीन हो जाना नहीं है। यह अदभूत सिद्धान्त है। स्वयं को ईश्वर या परमात्मा बनना है, पर किसी दूसरे ईश्वर या परमात्मा में विलीन होना नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार आत्माएं अनन्त हैं। सबका स्वतन्त्र अस्तित्व है। एक है जो किसी को अपने में विलीन कर सके। ऐसा कोई ईश्वर नहीं है, जिसमें सब जाकर विलीन हो जाएं। ऐसी कोई आत्मा नहीं है, जिसमें ईश्वर होने की क्षमता न हो। प्रत्येक आत्मा में ईश्वर होने की क्षमता भी है और अपनी स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने की क्षमता भी। ___यह ईश्वरवाद और स्वतन्त्रतावाद-दोनों साथ-साथ चलते हैं। आदर्श की प्राप्ति के लिए जिस मार्ग का चुनाव किया गया, उसमें पुरुषार्थ की प्रधानता है। पर उसकी भी सीमा है। प्रत्येक व्यक्ति के पुरुषार्थ में तारतम्य रहता है। सभी समान पुरुषार्थ नहीं कर पाते । पुरुषार्थ के आधार पर जैन धर्म में दो वर्ग बन गए-साधु और श्रावक। धर्म दोनों का एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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