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१४४ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
विराग का मूल
सम्यक् दर्शन का विकास नहीं होता है तब मनुष्य शरीर को ही अपना अस्तित्व मानता है और पदार्थ को अपना मानता है। यह अहंकार
और ममकार राग को बढ़ाता है। उससे बढ़ता है दुःख का चक्र। सम्यक् दर्शन का विकास होने पर सबसे पहले यह भ्रांति टूटती है। मैं शरीर नहीं हूं', 'मेरा अस्तित्व इससे भिन्न है', 'मैं आत्मा हूं, चेतन हूं, शरीर अचेतन है'। यह आत्मा और शरीर के भेद का बोध स्पष्ट होता है तब राग की जड़ हिल जाती है।
विराग का मूल हेतु है-आत्मा और शरीर का भेद-विज्ञान । यह भेद विज्ञान कोरा शब्द नहीं है, एक अनुभूति है। यह अनुभूति जितनी प्रखर होती है, वैराग्य उतना ही प्रखर हो जाता है। आत्मा और शरीर का भेदविज्ञान होने पर यह पदार्थ मेरा है' इस प्रकार की धारणा समाप्त हो जाती है। राग को बढ़ाता है शरीर और पदार्थ । शरीर और पदार्थ-दोनों की भेदानुभूति सत्य का दरवाजा खोल देती है।
सम्यग् दर्शन पुष्ट बने
सत्य का एक अर्थ है-जो जैसा है उसको उसी रूप में जानना। यानी पदार्थ का यथार्थ ज्ञान । इस सत्य का मूल्य केवल ज्ञानात्मक है, आचारात्मक नहीं। समग्र सत्य वह है जिसका मूल्य ज्ञानात्मक भी हो, आचारात्मक भी हो। सम्यग् दर्शन के अभाव में ज्ञानात्मक मूल्य वाला सत्य विकसित हो सकता है किन्तु आचारात्मक मूल्य वाला सत्य विकसित नहीं होता। एक रागी आदमी प्रिय वस्तु को अहितकर जानता हुआ भी उसे त्याग नहीं सकता है। उसे एकांश सत्य उपलब्ध है। वह अहितकर को अहितकर जानता है किन्तु विराग को बढ़ाने वाला भेद-- विज्ञान उसमें नहीं है। इसलिए वह अहितकर को अहितकर जानते हुए भी छोड़ नहीं पाता। जैन दर्शन तभी जिया जा सकता है जब सम्यग् दर्शन पुष्ट बने, भेद-विज्ञान का अभ्यास परिपक्व बने।।
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