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१३८ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
उसका कारण होता ही है । यह बात सब जगह लागू नहीं होती। सीमित क्षेत्र में यह बात लागू होती है कि कार्य बना तो उसका कोई कारण है । पर कुछ ऐसे हैं जो कार्य हैं ही नहीं । मूल तत्त्व कार्य नहीं हैं। वे न कारण हैं और न कार्य हैं। वे अपने-आप में तत्त्व हैं । कारण तो फिर भी बन सकते हैं, पर कार्य बिल्कुल नहीं। जितनी अवस्थाएं होती हैं, जो परिवर्तन होते हैं, उनमें भी बहुत प्रकार के परिवर्तन होते हैं। कुछ परिवर्तन किया हुआ होता है और कुछ परिवर्तन अपने-आप होता है, स्वभाव से होता है, काल के द्वारा होता है। एक आदमी पैदा हुआ, वह बूढ़ा होगा। बुढ़ापा कौन लाया ? किसने बूढ़ा बनाया? कोई बूढ़ा बनाने वाला नहीं है। यह काल का नियम है। प्रत्येक वस्तु एक कालावधि के बाद पुरानी हो जाती है । प्रत्येक वस्तु एक कालावधि के पश्चात समाप्त हो जाती है । यह काल के द्वारा किया हुआ है, किसी व्यक्ति या नियंता के द्वारा किया हुआ नहीं है। किसी दूसरे का नियंत्रण नहीं है। कहीं है काल का नियंत्रण, कहीं है स्वभाव का नियंत्रण, कहीं है व्यक्ति का अपना नियंत्रण। अलग-अलग प्रकार की वस्तुएं, अलग-अलग परिस्थितियां और अलग-अलग नियमन । एक ही कोई शक्ति नियंता नहीं है। अपने भाग्य का नियंता व्यक्ति स्वयं हैं। नियमन की सहायक सामग्री सारा संसार है । उसमें वस्तु निमित्त बनती है, क्षेत्र निमित्त बनता है, काल निमित्त बनता है, और भी हजारों चीजें निमित्त बनती हैं। किसी ने गाली दी और गुस्सा आ गया। किसी ने अप्रिय बात कही और क्रोध आ गया। किसी ने आज्ञा का अतिक्रमण किया और क्रोध आ गया। निमित्त हजारों मिल सकते हैं, पर करने वाला व्यक्ति स्वयं है । वह चाहे तो नियंता बन सकता है और चाहे तो कर्त्ता बन सकता है । क्रोध पर नियंत्रण भी कर सकता है और क्रोध भी कर सकता है । ये दोनों स्थितियां उसके हाथ में है। जैन दर्शन ने बहुत महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया कि तुम स्वयं अपने भाग्य के विधाता हो। तुम्हारे भाग्य का विधाता दूसरा नहीं है । तुम्हारे भाग्य की बागडोर तुम्हारे हाथ में है । दूसरा कोई उसे थामे हुए नहीं है। न किसी से आजीजी करो और न किसी पर दोषारोपण करो । न तो ऐसा सोचो कि अमुक आदमी हमारे भाग्य का निर्माण करेगा और
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