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शरीर और आत्मा का भेदाभेदवाद
आत्मा काय है। 'कायेन कृतस्य अनुभवनात्' हमारा सारा कार्य शरीर के आधार पर होता है। हमें जितना संवेदन होता है, अनुभव होता है, उसका माध्यम है शरीर। यह आत्मा और शरीर के अभेद स्वरूप की विवक्षा है। शरीर द्वारा कृत का अनुभव आत्मा करे, अन्य के द्वारा कृत का अनुभव अन्य करे तो 'अकृताभ्युपगम' दोष उपस्थित हो जाएगा। कृत का अनुभव होता है, इस अपेक्षा से आत्मा और शरीर एक है।
आत्मा काय नहीं भी है। शरीर का एक हिस्सा काट दिया। जो हिस्सा शरीर से काट दिया, वह शरीर से अलग हो गया, उसमें अनुभव नहीं होगा, संवेदन नहीं होगा। शेष सारे शरीर में अनुभव/संवेदन होगा। शरीर का जो हिस्सा कटा, उसका चैतन्य सिमट कर शरीर में आ जाएगा। शरीर का छेद होने पर भी जीवांश का छेद नहीं होता। इस दृष्टि से आत्मा
और शरीर भिन्न है। ___जीव अलग हो जाए तो संवेदना की अनुभूति नहीं हो सकती। दोनों को अत्यन्त अभिन्न मानने पर शरीर को जलाने पर आत्मा के जलाने पर प्रसंग आ जाएगा। जीव के नष्ट होने पर परलोक का भी विनाश हो जाएगा। आत्मा अदाह्य, अछेद्य और अभेद्य है-यह सिद्धान्त भी खंडित होगा। - इस सूत्र की व्याख्या का एक दूसरा कोण भी है। शरीर के दो भेद हैं- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर या औदारिक शरीर, कर्म शरीर । कर्म शरीर की अपेक्षा से आत्मा और शरीर अभिन्न हैं क्योंकि संसारी अवस्था में सूक्ष्म शरीर और आत्मा निरन्तर साथ रहते हैं। औदारिकशरीर की आत्मा
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