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क्या राजनीतिज्ञ के लिए आध्यात्मिक प्रशिक्षण जरूरी है ? ७१
केवल गरीबों की भलाई के लिए किया है तो सत्ता पर हावी होते ही भलाई की बात गौण हो जाएगी, वैभव और विलासिता का दिवास्वप्न सामने आ जाएगा । फिर उसकी गति होगी चाऊशेस्कू की दिशा में ।
__ क्या एक राजनीतिज्ञ के लिए, क्या एक प्रशासक और शासक के लिए आध्यात्मिक प्रशिक्षण लेना आवश्यक है । केवल राजनीतिज्ञ के लिए ही क्यों ? आध्यात्मिक प्रशिक्षण प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है ? यह किसी संप्रदाय या उपासना पद्धति का प्रशिक्षण नहीं है । यह आंतरिक शक्ति के जागरण का प्रशिक्षण है | अध्यात्म का अर्थ-आंतरिक स्व का विकास (Inner self development) । इसके बिना कोई भी कार्य प्रामाणिकता और पारमार्थिकता के साथ नहीं हो सकता । शासक या प्रशासक को एक निश्चित सीमा तक संयमी, त्यागी और जितेन्द्रिय होना ही चाहिए | यदि वह ऐसा नहीं है तो जनता को उससे भलाई की आशा नहीं करनी चाहिए ।
पटाक्षेप कब होगा?
हम अधिनायकवाद की बात छोड़ दें । लोकतंत्र में भी यदि आध्यात्मिक प्रशिक्षण नहीं चलता है तो इससे बड़ा आश्चर्य क्या होगा? लोकतंत्र में तानाशाही नहीं पनप सकती पर जो सत्ता की कुर्सी पर आता है, उसके हाथ में असीम अधिकार आ जाते हैं । विशाल तंत्र, विशाल धन-सम्पदा और कार्य नियोजन की अपार क्षमता—इन सबका उपयोग निर्वाचित व्यक्ति सही ढंग से करेंगे, इसका आश्वासन क्या है ? इसका नियामक तत्त्व कौन है ? चुनाव के समय उन्हें बदलने का अधिकार जनता के हाथों में है पर पांच वर्ष की अवधि कोई कम है क्या ? उस अवधि में कोई चाहे जैसा अर्थ-अनर्थ या कदर्थना कर सकता है । इस समस्या का समाधान आचार्यश्री तुलसी द्वारा जयाचार्य शताब्दी पर प्रदत्त घोष है-'निज पर शासन, फिर अनुशासन', पर जिनके पास पैसे का बल है, वोटों को खरीदने की शक्ति है, जो राजनीतिक दांवपेंच खेलने में कुशल हैं, वे इस घोष पर क्यों ध्यान देंगे? राजनीति के रंगमंच पर कुछ ऐसा ही अभिनय हो रहा है | पता नहीं इसका पटाक्षेप कब होगा?
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