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धर्म समन्वय और वैचारिक स्वतंत्रता ५१
हैं । उन्हें नहीं बदला जा सकता । वे आज जीवित नहीं है । उनके नाम पर चलने वाली संस्थाओं के लिए वे उत्तरदायी भी नहीं हैं। उन संस्थाओं में कुछ हुआ या नहीं हुआ, यह भी मेरे सामने चर्चनीय विषय नहीं है । चर्चनीय विषय यह है आज गांधीवाद की डोर को थामने वाला कोई भी व्यक्ति नहीं है । आचार्य विनोबा ने कुछ अंशों में गांधीवाद का नेतृत्व किया था । अब वे भी इस दुनिया में नहीं हैं । इसलिए गांधीवाद नेतृत्व-विहीन अथवा दिशासूचक सुईविहीन जैसा लग रहा है ।
गांधीवाद : वर्तमान स्थिति
गांधीजी सदा गांधीवाद शब्द को नकारते रहे । वे नहीं चाहते थे—उनके पीछे कोई संप्रदाय बने । उनकी चाह का विशेष अर्थ हो सकता है पर वह मानवीय मनोविज्ञान के अनुकूल नहीं है | हम चौखटे में मंढ़ी हुई विचार-धारा प्रस्तुत करें और उसके आकार को नकारें, यह कैसे संभव हो सकता है ? संप्रदाय से जुड़े हुए खतरों से सावधान रहा जा सकता है किन्तु विचारधारा से उपजने वाले संप्रदाय को नहीं रोका जा सकता । गांधीजी ने अपनी स्वतंत्र विचारधारा का अभिषेक किया किन्तु उसे ताज पहनाना उचित नहीं समझा । परिणाम यह हुआ-संप्रदाय बन गया, नेतृत्व विकसित नहीं हुआ । यदि संप्रदाय के साध नेतृत्व के विकास की बात सोची जाए तो अच्छे परिणाम आ सकते हैं । संप्रदाय की अनिवार्यता हो जाए और नेतृत्व के विकास की बात को नकार दिया जाए तो विषम स्थिति उत्पन्न हो जाती है । गांधीवाद आज उसी स्थिति को भोग रहा है ।
न निर्णायक : न नियंत्रक
गांधीजी की नीति अहिंसा से जुड़ी हुई हैं । अहिंसा जागतिक समस्याओं के लिए बहुत बड़ा समाधान है पर गांधी की नीतियों का कोई अधिकृत संचालक नहीं है । संप्रदाय का अर्थ है-उत्तराधिकार की परंपरा की स्वीकृति । यदि गांधीजी पूरी शक्ति का नियोजन कर किसी को गांधीवाद का प्रवक्ता मनोनीत करते और उस परंपरा को आगे बढ़ाने की बात सोचते तो एक दो शताब्दी तक अहिंसा की नीति का एक समर्थक संचालक व्यक्तित्व मिलता रहता । सुदूर भविष्य में हो सकता है स्थिति बदल जाए पर निकट भविष्य इतना अनिर्णायक
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