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प्रतीक्षा का क्षण २७
अभेद दिखलाकर सांप्रदायिक संघर्ष को कम करने का प्रयत्न किया है । इसे अवांछनीय नहीं कहा जा सकता । फिर भी इसके परिणाम बहुत अवांछनीय नहीं रहे | सौ अभेदों के बीच एक भी भेद की बात मुखर होकर उन्हें मौन कर देती है, संघर्ष नया रूप ले लेता है ।
केवल अभेद की बात करना एकांगी दृष्टिकोण है । यदि अभेद के साथ हमारी दृष्टि भेदोन्मुखी रहे तो असहिष्णुता को उभरने का मौका कम मिलेगा या नहीं मिलेगा । किस धर्म संप्रदाय ने क्या नई देन दी है ? क्या नये विचार का विकास किया है? यह विषय जन-साधारण तक पहुंचे तो उसका दृष्टिकोण बदल सकता है, दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णुता बढ़ सकती है । तुलना का अर्थ केवल समानता दिखलाना नहीं है । असमानता का दिग-दर्शन भी उसका मुख्य अंग है।
समाज से जुड़ी समस्याएं
समानता और असमानता-इन दोनों के आधार पर ही सहिष्णुता की फसल उगाई जा सकती है । धर्म-संप्रदाय के क्षेत्र में असहिष्णुता कम नहीं हुई है । अपने से भिन्न या विरोधी विचारों को सहना बहुत कम लोग जानते हैं। अन्यान्य क्षेत्रों में असहिष्णुता हो तो आश्चर्य नहीं होता पर धर्म-संप्रदाय के क्षेत्र में यह आश्चर्य की बात है | मुड़कर देखता हूं तो यह भी आश्चर्य नहीं है। मैं अध्यात्म से अनुप्राणित धर्म संप्रदायों को सामने रखकर सोच रहा हूं | बहुत से धर्म-संप्रदाय समाज-व्यवस्था से सीधे जुड़े हुए हैं । उनका दृष्टिकोण अध्यात्म से अनुप्राणित संप्रदाय जैसा नहीं हो सकता । अहिंसा का विकास सहिष्णुता के विकास पर निर्भर है और सहिष्णुता का विकास अहिंसा के विकास पर निर्भर है । यह निर्भरता अध्यात्म अनुप्राणित धर्म-संप्रदाय में ही हो सकती है । समाजव्यवस्था से जुड़े हए धर्म-संप्रदाय अहिंसा की भाषा में सोच नहीं सकते, बोल नहीं सकते । उनकी सोच और वाणी राजनीति के साथ चलेगी । संप्रदाय की मूल प्रकृति को समझकर ही हम उनके अभेद और भेद की मीमांसा कर सकते हैं । अध्यात्म प्रधान संप्रदाय न हिंसा को प्रोत्साहन दे सकता है, न असहिष्णु हो सकता है और न दूसरों के लिए खतरा पैदा कर सकता है । ये सारी समस्याएं समाज से जुड़ी हुई हैं । समाज-व्यवस्था को प्रधानता देने वाला इन समस्याओ
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