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मानसिक आरोग्य और अध्यात्म २०९
की आराधना इसलिए की जाती है कि वीतरागता उपलब्ध हो जाए । जो व्यक्ति वीतरागता की दिशा में प्रस्थान कर देता है उसके लिए मानसिक बीमारी का प्रश्न नहीं होता । वीतरागता के लिए तो है ही नहीं | ध्यान की साधना वीतरागता की दिशा में प्रस्थान है । व्यक्ति ध्यान करता है चित्त की निर्मलता के लिए | चित्त की निर्मलता का अर्थ है वीतरागता की दिशा में प्रयाण । जैसे-जैसे चित्त की निर्मलता बढ़ती जाएगी, वीतरागता का लक्ष्य निकट आता जाएगा । राग और द्वेष—ये दोनों मलिनता पैदा करते हैं । द्वेष की मलिनता का हमें पता चल जाता है किन्तु राग की मलिनता का पता नहीं चलता । वस्तुतः दोनों ही फैक्ट्रियों के जहरीले रासायनिक द्रव्य हैं जो हमारे चित्त को गंदला कर देते हैं, विषैला बना देते हैं । अध्यात्म और आयुर्वेद का दृष्टिकोण
.. अध्यात्म का यह सिद्धान्त है कि वीतराग के मन में विकार नहीं होता, रोग नहीं होता अथवा वीतरागता की साधना करने वाले व्यक्ति को भी मन का रोग नहीं होता, क्या यह ठीक बात है ? हम इसकी कसौटी कैसे करें ? क्या स्वास्थ्य का सिद्धान्त इसे सम्यक् कहता है । स्वास्थ्य के दो सिद्धान्त हैं
-प्राचीन और अर्वाचीन । प्राचीन सिद्धान्त है--आयुर्वेद और नया सिद्धान्त है-आयुर्विज्ञान । भारतीय स्वास्थ्य की प्राचीन परम्परा रही है आयुर्वेद । आयुर्वेद के आचार्यों ने मानसिक स्वास्थ्य के बारे में क्या सोचा ? क्या पाया ? इस संबंध में उनका दृष्टिकोण क्या रहा ? इस संबंध में खोज करें तो पाएंगेआयुर्वेद के आचार्यों ने मानसिक रोगों को कई भागों में बांटा है । मानसिक रोग अर्थात क्रोध, लोभ, भय, काम, इच्छा आदि-आदि पचासों मानसिक रोगो के बतलाए । उनकी दृष्टि में क्रोध आदि मानसिक रोग हैं । एक आदमी क्रोध करता है । उसे अनुभव करना चाहिए—मानसिक दृष्टि से मैं स्वस्थ नहीं हूं। मानसिक दृष्टि से जो स्वस्थ होगा उसे क्रोध आएगा ही नहीं। जितने भी बड़े बड़े महान सन्त हुए हैं, बड़े शान्त हुए हैं । गृहस्थी में भी जो बड़े-बड़े साधक हुए हैं, बड़े शान्त हुए हैं । बहुत बार प्रयत्न किया गया, अमुक संत को क्रोध आ जाए लेकिन सफलता नहीं मिली । हमारे प्राचीन ग्रन्थों में ऐसी सैकड़ों-सैकड़े घटनाएं उपलब्ध हैं और अलिखित घटनाओं का तो कोई हिसाब नहीं लगाय जा सकता ।
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