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आमंत्रण आरोग्य को
नल के नीचे बैठा । स्नान में पानी का स्रोत बहा दिया । क्या यह सही है ? यह प्रवृत्ति अहिंसा की दृष्टि से भी सही नहीं है और सृष्टि-संतुलन शास्त्र की दृष्टि से भी सही नहीं है । जो काम अल्प से किया जा सकता है उसके लिए अधिक का व्यय क्यों ?
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सीमा सामाजिक और धार्मिक — दोनों दृष्टियों से आवश्यक है । इस आवश्यकता की अनुभूति नहीं होती । उसके कारण आंतरिक हैं । जो सीमा का मूल्य नहीं जानता, वह उसका प्रयोग नहीं करता । इसका हेतु अज्ञान है । एक व्यक्ति उसका मूल्य जानते हुए भी उसका प्रयोग नहीं करता, इसका हेतु प्रमाद है । कोई व्यक्ति बहुत आराम का जीवन जीना चाहता है, सुख सुविधा को पूरी तन्मयता से भोगता है, वह भी सीमा नहीं करता । इसका हेतु सुविधावादी मनोवृत्ति है ।
मत की बात महीन
एक दीप जलता है । अंधेरा मिट जाता है। ज्ञान की एक रश्मि से अज्ञान को मिटाया जा सकता है । एक हल्का-सा स्पर्श किया, नींद जाग जाती है । एक जीवन सूत्र का स्पर्श हुआ, प्रमाद जागरूकता में बदल जाता है । अज्ञान और प्रमाद की समाप्ति जटिल नहीं है । जटिल है सुख-सुविधावादी मनोवृत्ति । आदमी जन्मा है सुख- सविधा को भोगने के लिए। यह एक अवधारणा है, एक सिद्धांत है, एक मत है । कवि ने ठीक लिखा- 'सुई का छेद महीन होता है !' जो मत बन गया, उसे बदलना बहुत जटिल है । भर्तृहरि ने शायद इसी बत को ध्यान में रखकर लिखा होगा
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते जनो विशेषज्ञः । ज्ञानलवदुर्विदग्धं, ब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति ।।
अजान को समझाना सरल है । विशेषज्ञ को समझाना भी बहुत सरल है । मतवादी को मनुष्य तो क्या, ब्रह्मा भी नहीं समझा सकता ।
दूसरा संदर्भ
सुविधा की बात समझाने की जरूरत नहीं, अपने आप समझ में आती
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