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९८ आमंत्रण आरोग्ग में
लिया गया कि अहिंसा कायर के लिए है । यह बहुत बड़ी भ्रांति है । कायरता और अहिंसा का कोई सम्बन्ध ही नहीं है । कायर आदमी को अहिंसा नहीं छूती और अहिंसा को कायर आदमी नहीं छूता । दोनों में जैसे अस्पृश्य भाव है । अहिंसा आंतरिक ऊर्जा का विकास है । परम पराक्रमी व्यक्ति ही अहिंसा की बात सोच सकता है, कर सकता है | जब दृष्टि बदलती है, पराक्रम स्वतः स्फूर्त हेता है, अहिंसा प्रकट होती है । अगर हम कष्ट-सहिष्णुता को छोड़कर अहिंसा की कल्पना करें तो वह हमारी मात्र भ्रांति ही होगी । इन दोनों को कभी पृथक् नहीं किया जा सकता । दोनों में बहुत गहरा सम्बन्ध है ।
स्थिरता का निदर्शन
प्राचीन काल की घटना है । एक व्यक्ति के मन में ज्ञान की गहरी पिपासा थी। उसने बहुत ज्ञान प्राप्त किया था । फिर भी गहरी प्यास थी । उसे पता चला कि चालीस कोस की दूरी पर एक लुहार रहता है । वह बहुत बड़ा ज्ञानी है। वह उसके पास पहुंचा और अपनी प्रार्थना प्रस्तुत की कि मैं ज्ञान-प्राप्ति के लिए आया हूं । लुहार ने कहा- 'बैठो । इस धौंकनी की रस्सी को पकड़ लो ।' लुहार धौंकनी धौंक रहा है,वह रस्सी पकड़े बैठा है । बैठा रहा । दिन पूरा हो गया । कुछ भी नहीं बताया । दूसरा दिन बीता, तीसरा दिन बीता, दिन ही नहीं बीते, वर्ष बीत गया । वह बार-बार कहता रहा- मैं धौंकनी चलाने के लिए नहीं आया हूं, ज्ञान की प्यास लिये हुए आया हूं । लुहार बात को सुनी-अनसुनी करता रहा । दस वर्ष बीत गए । लुहार ने एक दिन उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा- 'तुम अपने घर चले जाओ । जो पाना था, वह तुम पा चुके । तुम्हारी कसौटी हो गई । तुम पात्र हो, इतनी सहिष्णुता है कि तुम दस वर्ष का समय ज्ञान-प्राप्ति के लिए लगा सकते हो । अब कुछ भी मिलना शेष नहीं है, तुम्हें जो कुछ मिलना चाहिए था, वह मिल गया ।'
यह कल्पना जैसी बात लगती है । आज किसी विद्यार्थी से अध्यापक कहे कि यह झाडू लो और दस वर्ष तक सफाई करो तो दस वर्ष तो क्या, दस घंटा भी हो जाए तो बड़ी मुश्किल लगती है । वह सोचेगा पूरा दिन निकम्मा चला गया, कुछ पढ़ाया ही नहीं । आज इतनी अस्थिरता है आदमी में ।
वर्तमान दृष्टि - जब दृष्टिकोण प्रतिबद्ध हो जाता है तब व्यक्ति यह नहीं देखता कि यह
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