SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निष्काम कर्म और गीता ९५ में यज्ञ करना था, वह सारा छूट गया और यज्ञ का अर्थ सामने आ गया--- होम । होम का अर्थ हो गया, अग्नि में घृत डाल देना, आहुति दे देना । मूल बात थी प्राण में अपान का होम करना और अपान में प्राण का होम करना, वह छूट गई। आयुर्वेद में प्राणधारा को पांच भागों में विभक्त किया गया है । हठयोग में भी प्राण पांच भागों में विभक्त हैं— प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान । ये पांच प्राण हैं, जो हमारी जीवन की यात्रा को संचालित करते हैं । जब तक प्राण में अपान का और अपान में प्राण का योग नहीं होता तब तक अनासक्ति की बात फलित नहीं हो सकती । इसे चाहे दूसरी भाषा में कहें कि जब तक कुंडलिनी का जागरण नहीं होता तब तक अनासक्ति की बात जीवन में नहीं आती । मेडिकल साइंस की भाषा में कहें तो जब तक प्राणऊर्जा का केन्द्रीय नाड़ी-संस्थान में ऊरोिहण नहीं होता, तब तक अन्तर्मखता नहीं आती । जब तक ऊर्जा सुषुम्ना से ऊपर की ओर नहीं जाती, ग्रे मेटर को भावित नहीं किया जाता, तब तक अनासक्ति की बात जीवन में नहीं उतरती, अन्तर्मुखता का मार्ग नहीं खुलता । आदमी बहिर्मुखी बना रहता है । उसका मुंह बाहर की ओर होता है । उसे पदार्थ ही अच्छा लगता है । उसकी कामना और आसक्ति बनी रहती है । वह उस कामना और आसक्ति को छोड़ ही नहीं सकता । हम सिद्धान्त को चाहे कितना ही जान लें, कामना नहीं छूटती । कामना तब छूटती है, जब भीतर का मार्ग खुल जाता है । कठिन है कामना को छोड़ना जब काम-ऊर्जा ऊपर की ओर जाती है, उसका ऊर्ध्वारोहण होता है, वह ऊर्जा केन्द्र से हटकर मेरुदंड, सुषुम्ना या उससे ऊपर मस्तिष्क में पहुंच जाती है, ज्ञानकेन्द्र में कामकेन्द्र की ऊर्जा आ जाती है तब आदमी की दिशा बदलती है, आसक्ति छूटती है | इसी बात को गीता में कहा गया- प्राण में अपान का होम और अपान में प्राण का होम | इससे मनुष्य अनासक्त बन सकता है। कठिनाई यही है कि हमने सिद्धान्त को पकड़ा और प्रयोग को छोड़ दिया। जब तक हम इस बात का समाधान नहीं करेंगे, तब तक निष्काम कर्म की दुहाई या निष्काम कर्म की चर्चा केवल वाणी का विलास मात्र होगा, वह जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003069
Book TitleAmantran Arogya ko
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy