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महावीर, मार्क्स, केनिज और गांधी
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एक बहुत संपन्न व्यक्ति होटल में बैठा था। लड़का दौड़ता हुआ आया । उसने कहा— 'पिताजी ! अपनी सबसे बड़ी बिल्डिंग में आग लग गयी, मकान जल कर राख हो गया।' यह सुन कर वह दुःख में डूब गया । इतने में ही दूसरा लड़का आया और बोला- ' मकान जल गया, किन्तु संतोष की बात यह है कि उस मकान को पहले ही बेच दिया था । उसकी पूरी कीमत हमें प्राप्त हो गयी थी ।' तत्काल ही उसका सारा दुःख काफूर हो गया ।
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सुख-दुःख किसके साथ जुड़े हैं ? संवेदन के साथ जुड़े हैं । मकान जल रहा है या बच रहा है, इसके कोई मायने नहीं है । पदार्थ गौण है, मुख्य है हमारा संवेदन | महावीर ने और सुविधा — दोनों को अलग बताया । सुख अलग है, सुविधा सुख अलग है। उन्होंने कहा — जिसे सुख मानते हो, वह भी क्षणिक है । क्षणमात्र सुख मिला, किन्तु परिणाम - काल में वह लम्बा दुःख है ।
हो सकता
स्वतंत्रता का प्रश्न
हम एक बात पर और विचार करें। स्वतंत्रता और सुख- - ये दोनों चिरकालीन अभिप्रेत रहे हैं। मनुष्य चाहता रहा है - स्वतंत्र रहूं और सुखी रहूं। जहां महावीर और गांधी का प्रश्न हैं, वहां नितान्त स्वतंत्रता का प्रश्न है । व्यक्ति स्वतंत्रता सर्वप्रथम . मान्य है। जहां व्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित हो, वह स्थिति न महावीर को मान्य है, न गांधी को । मार्क्स ने भी इस अर्थ में कम दौड़ नहीं लगाई। उन्होंने भी एक सपना देखा और वह बहुत महत्वपूर्ण हैं । 'स्टेटलेस सोसायटी' राज्यविहीन समाज - यह कितना बड़ा स्वप्न है । ऐसी स्वतंत्रता, जहां कोई शासन ही नहीं है ।
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केनिज ऐसा सपना नहीं देख सके। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में स्वतंत्रता तो मान्य है किन्तु वे स्टेटमेल सोसायटी की कल्पना और उसका प्रतिपादन नहीं कर सके । मार्क्स ने ऐसा किया किन्तु जहां केन्द्रित अर्थव्यवस्था होती है, वहां राज्यविहीन शासन का सपना कैसे लिया जा सकता है ? वहां तो हिंसा और दण्ड का सहारा लेना ही होगा। वहां तानाशाही पनप सकती है, स्वतंत्रता की बात नहीं हो सकती ।
लेनिन ने मार्क्स के सपने को साकार करने का प्रयत्न किया किन्तु स्टालिन के हाथ में जैसे ही सत्ता आयी, तानाशाही का रूप इतना विकराल हो गया, स्वतंत्रता के लिए अवकाश ही नहीं रहा । सारी स्थिति बदल गयी, मार्क्स का वह सपना अधूरा ही रह गया ।
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