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जिज्ञासा : समाधान
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होती है और गति होते-होते जो लोग अंत तक पहुंच जाते हैं, फिर वे अपरिग्रह तक भी पहुंच सकते हैं । किन्तु पूरा जैन समाज अपरिग्रह तक पहुंच जाएगा, इसका अर्थ तो यह हो गया है कि सारा समाज मुनि बन जाएगा, संन्यासी बन जाएगा।
भगवान् महावीर ने मुनि के लिए अपरिग्रह का विधान किया है, गृहस्थ के लिए उन्होंने अपरिग्रह जैसे शब्द का प्रयोग नहीं किया। उन्होंने इच्छा-परिमाण की बात कही। श्रावक को इच्छा-परिमाण करना चाहिए। जो अनन्त इच्छा है, उसकी कोई न कोई सीमा करनी चाहिए।
सीमा के लिए उन्होंने दो बातें बतलायीं । पहली बात-अर्जन के साधन अशुद्ध नहीं होने चाहिए, अप्रामाणिक नहीं होने चाहिए । महावीर की पूरी आचार-संहिता है गृहस्थ के लिए । उसमें अप्रामाणिकता के जितने व्यवहार हैं, उन सबका वर्जन किया है। मिलावट, असली वस्तु दिखा कर नकली वस्तु दे देना, धोखाधड़ी करना, धरोहर हड़पना आदि-आदि अप्रामाणिकता के जितने सूत्र हैं, साधन हैं, वे सब वर्जित हैं।
दूसरी बात है-अर्जित धन का उपयोग अपने विलास के लिए न किया जाए। व्यक्तिगत संयम किया जाए। _ ये दोनों बातें होती हैं तो फिर कितना ही कमाए, इस पर कोई नियंत्रण नहीं होता। एक व्यक्ति शुद्ध साधन के द्वारा कमाता है। हो सकता है कि लाख रुपया भी मिल जाए, करोड़ रुपया भी मिल जाए । कमा लेने पर उसका उपयोग वह अपने लिए नहीं करता, अपने लिए पूरा संयम वर्तता है। जैसा आनन्द श्रावक का जीवन था। करोड़ों की संपदा, करोड़ों का व्यापार किन्तु अपने लिए बहुत संयमी। इतना सीधा-सादा जीवन कि जो एक सामान्य आदमी भी नहीं रख पाता।
ये दो शर्ते हैं गृहस्थ के लिए अपरिग्रह की प्रारम्भिक भूमिका में ये दोनों महत्त्वपूर्ण हैं । जैन समाज इन दोनों को स्वीकार करे तो एक बहुत बड़ी भ्रान्ति मिट सकती है। __ पर मुझे लगता है कि कोई भी समाज धर्म का अनुयायी होता है, धर्म का सहयात्री नहीं होता। प्रत्येक धर्म की यही स्थिति है। लोग धर्म के पीछे चलते हैं, धर्म के साथ नहीं चलते । अब उन अनुयायियों से यह अपेक्षा रखना कि अपरिग्रह का सिद्धान्त फलित हो, यह मुझे संभव नहीं लगता है।
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