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________________ धर्म से आजीविका : इच्छा-परिमाण १०१ मानता है। धर्म-गुरु की दृष्टि में आर्थिक प्रगति का प्रश्न गौण होता है, नैतिकता और शांति का प्रश्न मुख्य होता है। __ धर्म-गुरु सामाजिक व्यक्ति को धर्म में दीक्षित करता है, इसलिए वह उसकी आर्थिक अपेक्षाओं की सर्वथा अपेक्षा कर उसके लिए अपरिग्रह के नियमों की संरचना नहीं कर सकता। इस आधार पर ‘इच्छा-परिमाण' व्रत के परिपार्श्व में महावीर ने इन नैतिक नियमों का निर्देश दिया १. झूठा तोल-मापन करना। २. मिलावट न करना। ३. असली वस्तु दिखाकर नकली वस्तु न बेचना इच्छा-परिमाण : नियामक तत्त्व समाज के संदर्भ में इच्छा-परिमाण के नियामक तत्त्व दो हैं--प्रामाणिकता और करुणा । व्यक्ति के संदर्भ में उसका नियामक तत्त्व है—संयम । झूठा तोल-माप आदि न करने के पीछे प्रामाणिकता और करुणा की प्रेरणा है। व्यक्तिगत उपभोग कम करने के पीछे संयम की प्रेरणा है। महावीर के व्रती श्रावक अर्थार्जन में अप्रामाणिक साधनों का प्रयोग नहीं करते थे और व्यक्तिगत जीवन की सीमा रखते थे। धन के अर्जन में प्रामाणिक साधनों का उपयोग न करना, संग्रह की निश्चित सीमा करना और व्यक्तिगत उपभोग का संयम करना—ये तीनों मिलकर 'इच्छा-परिमाण' व्रत का निर्माण करते हैं। प्रश्न धर्म और गरीबी का यह आर्थिक विपन्नता का व्रत नहीं है। धर्म और गरीबी में कोई सम्बन्ध नहीं है । गरीब आदमी ही धार्मिक हो सकता है या धार्मिक को गरीब होना चाहिए---यह चिन्तन महावीर की दृष्टि में टिपूर्ण है। धर्म की आराधना न गरीब कर सकता है और न अमीर कर सकता है। जिसके मन में शान्ति की भावना जागृत हो जाती है, वह धर्म की आराधना कर सकता है, फिर चाहे वह गरीब हो या अमीर । धार्मिक व्यक्ति गरीबी और अमीरी—दोनों से दूर होकर त्यागी होता है। जन्मना : कर्मणा हमने धर्म को एक जाति का रूप दे दिया। हमारे युग के धार्मिक जन्मना धार्मिक हैं । जो व्यक्ति जिस परम्परा में जन्म लेता है, उस वंश-परम्परा का धर्म उसका धर्म हो जाता है ।जन्मना धार्मिक के लिए इच्छा-परिमाण का व्रत अर्थवान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003067
Book TitleMahavira ka Arthashastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2007
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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