________________
छह
किया जाता है तब यह नितांत आवश्यक हो जाता है कि अर्थ को संयम के नजरिये से देखा-परखा जाये । यह सही है कि आज संसार जितना आगे बढ़ गया है उसे संयम के केन्द्र से जोड़ना बड़ा मुश्किल है । पर यह भी सही है कि उसके बिना कोई चारा भी नहीं है। अतः कटु होते हुए भी आज के रोग की यह एक अनिवार्य औषधि है। प्रस्तुत पुस्तक में यही प्रयास मुखरित हुआ हो।
इस प्रयास में मुख्य रूप से आचार्य श्री तुलसी एवं युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के विचारों को ही प्रतिबिम्बित किया गया है। पर फिर भी महात्मा गांधी, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, काका कालेलकर, धनश्यामदास बिड़ला, ग्लेन डी पेज आदि अन्य अहिंसक विचारकों को भी शामिल किया गया
महाश्रमण मुनिश्री मुदितकुमार जी तथा प्रेक्षा-प्रशिक्षक मुनिश्री महेन्द्रकुमार जी का सहाय्य भी मेरे लिए बहुत मूल्यवान् रहा है।
प्रस्तुत अर्थ-शास्त्र को केवल वैचारिक आधार प्रदान करना ही पर्याप्त नहीं समझा गया। यह भी अपेक्षित समझा गया कि उसे भावनात्मक परिवर्तन से भी जोड़ा जाये । इस दृष्टि से अणुव्रत के आसपास प्रेक्षा-ध्यान तथा जीवनविज्ञान का एक पूरा ताना-बाना है। उसी संदर्भ में जिस रासायनिक परिवर्तन की विधा का प्रकटन यहां हुआ है उसे भी इस संग्रह की अर्थनीति का मुख्य आधार माना गया है।
यह सही है कि आधुनिक अर्थशास्त्र से प्रभावित मस्तिष्क को यह नई अर्थ-संधारणा सहज रूप से गृहीत नहीं हो सकेगी तथा इसे लागू करना तो और भी अधिक कठिन प्रतीत होगा । पर यदि हम ईमानदारी से कोई शांतिमय एवं निरापद विश्व-व्यवस्था चाहते हैं तो इसके सिवाय और कोई विकल्प भी नहीं है । कमजोर और अबुद्ध आदमी को और अधिक कमजोर एवं पददलित होने से बचाना है तो समृद्ध एवं प्रबुद्ध लोगों को अपने आप पर संयम का बांध लगाना ही होगा।
इस दृष्टि से जैन विश्व भारती संस्थान ने एक नई पहल की है। इसीलिए अहिंसा और शांति-शोध जैसे दुरूह विषय को अपने स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में शामिल किया। सचमुच यह एक साहसिक और लीक से हट कर लिया गया निर्णय है। इस दृष्टि से भी इस पुस्तक का अपना एक महत्त्वपूर्ण संदर्भ है। आशा की जानी चाहिए कि इस पहल के कुछ परिणाम भी आयेंगे।
-मुनि सुखलाल
जैन विश्व भारती संस्थान
लाडनूं २६ जनवरी, १९६२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org