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धर्म से आजीविका : इच्छा-परिमाण
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अर्थशास्त्र में आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यकता बढ़ाने का सिद्धांत है। कुछ अर्थशास्त्री इसका मुक्त समर्थन करते हैं तो कृछ अर्थशास्त्री इसके मुक्त समर्थन के पक्ष में नहीं है । आवश्यकताओं को बढ़ाने के पक्ष में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं
१. आवश्यकताभों की वृद्धि से मनुष्य को अधिकतम सुख या संतोष प्राप्त होता है।
२. आवश्यकताओं की वृद्धि सभ्यता के विकास और जीवनस्तर की उन्नति में सहायक होती है।
३. आवश्यकताओं की वृद्धि से धन के उत्पादन में वृद्धि होती है।
४. आवश्यकताओं की वृद्धि से राज्य की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है फलतः वह राज्य सैनिक दृष्टिकोण से सशक्त और अपनी रक्षा में आत्मनिर्भर हो जाता है।
आवश्यकता को बढ़ाने के विपक्ष में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जाते
१. आवश्यकताओं की वृद्धि से मनुष्य दुःख-क्लेश का अनुभव करता
२. आवश्यकताओं की वृद्धि और फिर उनकी संतुष्टि के लिए निरन्तर प्रयत्न मनुष्य को भौतिकवादी बनाता है।
३. आवश्यकताओं की वृद्धि से समाज में वर्ग-संघर्ष (class stuggle) हो जाता है।
४. आवश्यकताओं की वृद्धि से मनुष्य स्वार्थी हो जाता है और वह अधिक धन कमाने के लिए अप्रामाणिक साधनों का प्रयोग करता है।
____ अनेकान्त की दृष्टि से मीमांसा करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि सत्यांश दोनों के मध्य में है । आवश्यकताओं की अत्यन्त कमी में सामाजिक उन्नति नहीं होती-यह अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण मिथ्या नहीं है तो आवश्यकताओं की अत्यन्त वृद्धि होने पर दुःख या क्लेश बढ़ता है, यह दृष्टिकोण भी मिथ्या नहीं है । इस दूसरे दृष्टिकोण को धर्म का समर्थन भी प्राप्त है। अर्थशास्त्र का समर्थन इसलिए प्राप्त है कि मार्शल के अनुसार अर्थशास्त्र मानवीय कल्याण का शास्त्र है और इसका मुख्य उद्देश्य मानवीय कल्याण में वद्धि करना है। 'सीमित साधनों में असीमित आवश्यकताओं की संतुष्टि का पथ प्रदर्शित करना अर्थशास्त्र का कार्य है। किन्तु जिस अनुपात में आवश्यकताओं की वृद्धि की जा सकती है उसी अनुपात में उनकी संतुष्टि नहीं की जा सकती। सभी मनुष्य अपनी सभी आवश्यकताओं को संतुष्ट नहीं कर सकते। १. अल्ड मार्शल, Principles of Economics, P. 1.
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