________________
१८८
अहिंसा के अछूते पहलु सामाजिक दृष्टिकोण
यह अवैज्ञानिक दृष्टिकोण है। मन पर अर्थ के प्रभाव के कारण आदमी का जीवन आराम-तलब और सुविधावादी बन गया । क्यों ? यह समझ में नहीं आ रहा है । अगर पूरे जीवन के क्रम का विश्लेषण करें तो ऐसा लगता है कि इस आर्थिक प्रभाव के कारण आदमी शारीरिक, मानसिक आदि अनेक प्रकार की यातनाएं भोग रहा है।
प्रो० ग्लेन डी पेज, डा० दरशनसिंह आदि कई लोग शिविरस्थल की सफाई कर रहे थे, कागज उठा रहे थे। समणियों ने कहा, आप यह क्या कर रहे हैं ? यह काम तो छोटे आदमी का है, बड़े आदमी का नहीं है । छोटा आदमी काम करे, मजदूर काम करे, कर्मचारी काम करे, नौकर काम करे तो ठीक बात है। बड़ा आदमी ऐसे कैसे करे ? समणियों के मन पर अर्थ का प्रभाव नहीं है, पर मान्यताओं का तो थोड़ा बहुत असर होता ही है । मान्यता ही आज मूल्य बन गये हैं। समाज में ऐसा चितन व्याप्त है कि सफाई का काम करने वाला, झाडू देने वाला आदमी छोटा होता है। बड़ा वह होता है जो गद् दे के सहारे बैठा रहे और कुछ भी काम नहीं करे । अर्थ का सम्यग दर्शन
एक सेठ बहुत बीमार था। उसने एक प्राकृतिक चिकित्सक को दिखाया। चिकित्सक ने परामर्श दिया-सेठ साहब ! घूमा करो। दो-चार मील घूमा करो। सेठ ने कहा, धूमने तो जाता था, जाता भी हूं, पर यह मुसीबत हो गई कि पैट्रोल बहुत कम मिलता है। घूमने जाऊंगा तो मोटर में बैठकर ही जाऊंगा।
एक भिखारी ने भगवान से प्रार्थना की-मुझे लाख रुपया मिल जाए। किसी ने पूछा-अरे ! लाख रुपये मिल जायेंगे तो बोलो, क्या करोगे? उसने कहा-मोटर में बैठकर भीख मांगने जाऊंगा । मनोदशा ऐसी बन जाती है । भीख के लिए भी मोटर चाहिए।
जब अर्थ का प्रभाव मन पर हो जाता है तो जीवन का नया निर्माण नहीं हो सकता, इसलिए अर्थ और काम के प्रति हमारा सम्यग् दर्शन, सम्यग् दृष्टिकोण होना चाहिए। अर्थ के प्रति सम्यग् दर्शन का अर्थ है - समाज में या व्यक्ति में न अर्थ का अभाव होगा और न अर्थ का प्रभाव होगा। दोनों वांछनीय नहीं हैं। किन्तु अर्थ की मात्र उपयोगिता होगा। यह अर्थ का सम्यक् दर्शन है। दृष्टिकोण धर्म के प्रति
भारतीय चिंतन में चार पुरुषार्थ बतलाये गए हैं। इन में पहले दो हैं—काम और अर्थ, अगले दो हैं धर्म और मोक्ष । जीवन के निर्माण का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org