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२२. नये जीवन का निर्माण
हमारी इस दुनिया का नियम है कि कुछ बनता है और कुछ नष्ट होता है। प्रकृति के जगत् में बहुत सारे पदार्थ बनते हैं और नष्ट होते हैं। मनुष्य जगत् में भी यही हो रहा है । कितने लोग आते हैं और कितने लोग चले जाते हैं । यह एक प्रवाह है। होना और मिटन। चलता रहता है। जीवन भी एक प्रवाह है । जीवन की धारा निरंतर बहती रहती है। जो है वह वैसा ही रहे। यह कभी संभव नहीं हैं । जो है उसमें बदलाव आता है। बदलने का नाम है-नव-निर्माण।
जीवन के नव-निर्माण की प्रक्रिया का पहला सूत्र होगा-अपना बोध । इसका अर्थ है अपने आपको जानना और अपने आपको पहचानना । यह कोई अत्युक्ति नहीं है कि दुनिया की बहुत सारी बातों को जानने वाला आदमी अपने आपसे बिलकुल अनजान है । दूसरों को पहचानने वाला अपने को नहीं पहचान पा रहा है। अपने भीतर क्या है, उसे पता नहीं है । बाहर की दुनिया में सुख भी है दुःख भी है, अच्छा भी है बुरा भी है, प्रिय भी है अप्रिय भी है । ज्ञान है, सामर्थ्य है, सारी बातें हैं । क्या ये अपने भीतर नहीं हैं ? जितनी चीजें बाहर हैं, उतनी चीजें अपने भीतर हैं। भीतर का संसार बाहर के संसार से छोटा नहीं है। भीतर में सुख भी है, दुःख भी है, शांति भी है; अशांति भी है । शक्ति भी है और दुर्ब लता भी है। सारी बातें अपने भीतर हैं, किंतु हम भीतर की बातों से बिलकुल अनजान हैं। बाहर में शांति है इसका हमें अहसास होता है किंतु भीतर में शांति है इसका पता हमें नहीं चलता।
बाहर की दुनिया को जानने के नियम अलग हैं, भीतर की दुनिया को जानने के नियम अलग हैं। जब तक हम नियमों को नहीं जान लेते तब तक भीतर को नहीं जान सकते । किसी भी वस्तु को जानने से पहले उसके नियमों को जानना जरूरी है । बहुत बार नियमों की जानकारी के अभाव में आदमी गलत व्यवहार कर लेता है । नियम को जाने
एक ग्रामीण आदमी शहर में सिनेमा देखने चला गया। सिनेमा हॉल में जाते ही सारे दरवाजे बंद हो गये, सारी बत्तियां बुझा दी गयीं। यह देखकर ग्रामीण आदमी चिल्लाने लगा-बेवक फ ही बेवकूफ हैं। यहां सिनेमा कहां दिखायेंगे ? क्या अन्धेरे में दिखायेंगे ? बिजली तो पहले ही बुझा दी।
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