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________________ २१. ध्यान और अलौकिक चेतना ध्यान के संबंध में दो चेतनाओं का विमर्श आवश्यक होता है । एक है लौकिक चेतना और दूसरी है अलौकिक चेतना । ध्यान के द्वारा आलौकिक चेतना का विकास होता है। जो व्यक्ति अपने भीतर नहीं झांकता, उसकी चेतना लौकिक होती है । जिस व्यक्ति ने भीतर देखना शुरू कर दिया, उसमें अलौकिक चेतना का जागरण प्रारम्भ हो जाता है। लौकिक चेतना का स्वरूप प्रश्न होगा-क्या है लौकिक चेतना और क्या है अलौकिक चेतना? ध्यान के प्रसंग में इसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि जो प्रतिक्रियात्मक चेतना है, वह है लौकिक चेतना और जो प्रतिक्रिया मुक्त या क्रियात्मक चेतना है, वह है अलौकिक चेतना। प्रतिक्रियात्मक चेतना वाला व्यक्ति प्रवाहपाती होता है। वह प्रवाह के पीछे-पीछे चलता है। म आदमी बाजार से गुजरता है। मिठाई की दुकान पर मिठाइयां देख कर ललचा जाता है। मुंह से लार टपकने लग जाती है। आईसक्रीम देखते ही जी मचल उठता है । यह सारा प्रतिक्रियात्मक चेतना का खेल है। साड़ी या गहनों की दुकान देखते ही स्त्री का मन ललचा जाता है। जब-जब सुन्दर पदार्थ सामने आता है, तत्काल उसे हस्तगत करने की भावना जाग उठती है। उन्हें पाने की लालसा तीव्र हो जाता है। यह सारी रागात्मक प्रतिक्रिया है। विरोधी के सामने आते ही आंखें लाल हो जाती हैं, भौंहें तन जाती हैं। सारी आकृति बदल जाती है। किसी ने कुछ कटु वचन कहे, गाली दी तो उसके प्रति तनाव बढ़ जाएगा, द्वेष उभर आएगा। यह द्वेषात्मक प्रतिक्रिया है। ये दोनों प्रकार की प्रतिक्रियाएं जीवन में होती हैं। लौकिक चेतना का अर्थ ही है प्रतिक्रिया करना, प्रतिक्रिया का जीवन जीना। व्यवहार है प्रतिक्रियात्मक एक दिन में आदमी पचास-सौ बार प्रतिक्रियाएं कर लेता है। उसका सूत्र ही बन जाता है.--"शठे शाठ्यं समाचरेत्"-जैसे को तैसा । आदमी में भाव बनते हैं, बदलते हैं, फिर बनते हैं । फिर बदलते हैं । एक स्थिति आती है और आदमी हंसने लग जाता है, दूसरी स्थिति आती है और रोने लग जाता है। एक स्थिति में आदमी क्रोध से लाल-पीला हो जाता है, दूसरी स्थिति में वह प्रेम पूर्ण व्यवहार करता है । यह सारा व्यवहार अहेतुक नहीं होता । इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003065
Book TitleAhimsa ke Achut Pahlu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size9 MB
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