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१६. नैतिकता और व्यवहार
सामाजिक जीवन जीने वाला व्यक्ति अकेला नहीं जीता, दूसरों के साथ जीता है । वह दूसरों के साथ प्रतिदिन व्यवहार करता है । सबसे अधिक प्रसंग आता है व्यवहार का । आदमी के व्यवहार का मूल्यांकन करते समय यह प्रश्न सामने आता है कि किस व्यवहार को अच्छा मार्ने और किसे बुरा मानें ? किस व्यवहार को शुभ मानें और किसको अशुभ मानें ? किस व्यवहार को सत् और पुण्य मानें और किसको अस्त और पाप मानें ?
सुख का आधार
भारतीय चिंतन में व्यवहार की चर्चा पुण्य पाप, सत्-असत् के आधार पर की गई है । पश्चिमी आचार - शास्त्र में व्यवहार की चर्चा शुभ और अशुभ के आधार पर हुई है । मूल प्रश्न एक ही है कि अच्छे और बुरे व्यवहार की कसौटी क्या है ? क्या हम व्यक्ति की इच्छा को कसोटी मानें या कोई ऐसा मानदंड है जो सार्वभौम कसौटी बन सके ? इस कसौटी के प्रश्न पर अनेक शाखाओं ने चिंतन किया है। अनेक मनोवैज्ञानिक और नीतिशास्त्रीय कसौटियां हैं । उनमें एक कसौटी है सुखवाद | आचारशास्त्र में इसको दो भागों में विभक्त किया गया - मनोवैज्ञानिक सुखवाद और नीतिशास्त्रीय सुखवाद । यह महत्त्वपूर्ण कसोटी मानी गई है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद का मूल प्रतिपाद्य यह है कि जिस आचरण से व्यक्ति को सुख मिले, जो सुखद आचरण है, वह नैतिक आचरण है । जिस आचरण से दुःख की अनुभूति हो, दुःख मिले, जो दुःखद हो, वह अनैतिक है । स्वभाव से ही सभी प्राणी सुख चाहते हैं, दुःख नहीं चाहते । इस स्वाभाविकता को मनोविज्ञान ने सुख का आधार माना ।
आचारांग सूत्र का वाक्यांश है - "सुहसाया दुहपडिकूला " - सभी सुख चाहते हैं, दुःख किसी को प्रिय नहीं है । सुख प्रिय है, दु:ख अप्रिय है । प्रत्येक प्राणी अनुकूल वेदना चाहता है, प्रतिकूल वेदना कोई नहीं चाहता । यह एक स्वभाव है । इस स्वभाव को आचार की, नैतिकता की और व्यवहार की कसौटी बना लिया गया है । इसके आधार पर जो सुखद है, अनुकूल है वह नैतिकता है और जो दुःखद है, प्रतिकूल है वह अनैतिकता है ।
प्रारम्भिक निष्कर्ष में यह बात बहुत अच्छी लगती है कि वही व्यक्ति नैतिक है जो सुख पहुंचाता है । दुःख देने वाला कभी नैतिक नहीं हो सकता । किन्तु विमर्श करने पर यह कसौटी ठीक नहीं बैठती । यदि हम यह मान
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