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________________ तिकता और संयम २१५७ मनुष्य के लिए हितकर नहीं होता। यह अधिक सुख की आकांक्षा, हमेशा दुःख से बचने का प्रयत्न, कठिनाई से बचने की अभीप्सा और अधिक सुविधावादी दृष्टिकोण आदमी को ऐसे जाल में फंसा देता है जिससे उसे अधिक कठिनाइयां और परेशानियां मुगतनी पड़ती हैं। प्राणतत्व के ह्रास का कारण ___ हमें रोग से बचाता है हमारा प्राण-तंत्र । उसे मेडिकल साइंस की भाषा में प्रतिरोधात्मक शक्ति कहते हैं। कृत्रिम संसाधनों से व्यक्ति का प्राण तत्त्व या रोग-प्रतिरोधात्मक क्षमता कमजोर बन जाती है। व्यक्ति अधिक दुःखी बन जाता है । हम मूल बात पर विचार करें कि संयम का सबसे पहला तत्त्व क्या है ? कहां संयम करें? सबसे पहले संयम करें सुख की आकांक्षा का । सुख की जो एक प्रबलतम इच्छा है उसको कम करें । केवल सुख ही सुख की बात न करें। वस्तुतः सारी प्रकृति में और हमारे जगत में केवल सुख की बात हैं ही नहीं। प्रत्येक सुख के साथ दुःख जुड़ा हुआ है। एक आदमी बहुत खाता है, पेटू है। उसे खाने से सुख मिलता है पर खाने के बाद क्या होता है ? क्या सुख ही मिलता है ? नहीं, बहुत दुःख मिलता है । रोगी भी बनता है और बड़ा दुःख होता है । सूगर आदि अनेक बीमारियों से घिर जाता है। वह अधिक खाने की आदत को बनाए रखने के लिए बहाना भी खोज लेता है और मार्ग भी खोज लेता है। मालिक ने रसोइये से कहा-देखो, आज एक समस्या पैदा हो गई है। नौकर ने पूछा-मालिक ! क्या समस्या है ? मालिक ने कहा-आज मेरी नौकरी छूट गई है और जब तक नई नौकरी न लगे तब तक बड़ी परेशानी है। तुम एक बात का ध्यान रखना। रसोई में ज्यादा खर्च मत करना। बहुत सीधा-साधा भोजन बनाना। घी, दूध का ज्यादा खर्च मत करना । नौकर ने कहा, ठीक है। भोजन का समय आया। उसने मालिक को रूखी रोटियां परोस दी और स्वयं खूब घी और दूध के साथ रोटी खाने लगा। मालिक ने कहा- अरे मूर्ख ! मैंने क्या कहा था कि संयम बरतना है और रूखा-सूखा खाना है। नौकर ने कहा-मालिक ! नौकरी आपकी छूटी है मेरी नहीं छूटी है। मूल प्रेरणा है सुख की आकांक्षा आदमी तर्क खोज लेता है। बड़े बहाने होते हैं। क्योंकि भीतर में जो आकांक्षा बैठी है उसे पूरा किए बिना काम नहीं चलता। हमारे सामने एक जटिल प्रश्न है । हम नैतिकता की बहुत चर्चा करते हैं और उसका बहुत विकास चाहते हैं। हर आदमी यह सोचता है कि भ्रष्टाचार मिटना चाहिए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003065
Book TitleAhimsa ke Achut Pahlu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size9 MB
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