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२२४ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ सम्प्रदाय के मुनि आगम स्वाध्याय के समय खुले मुंह नहीं बोलते। खुले मुंह बोलने में हिंसा होती है, यह स्पष्ट अवधारणा परिलक्षित नहीं होती। स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय के मुनि खुले मुंह बोलने में हिंसा मानते हैं और मुखवस्त्रिका भी बांधते हैं। हमारी मानसिकता दिगम्बर परम्परा में स्त्रियां मुनि के चरणों का स्पर्श करती हैं। श्वेताम्बर परम्परा में वे मुनि के चरणों का स्पर्श नहीं करतीं। तेरापंथ की परम्परा में रात को व्याख्यान होता है, स्त्रियां भी उसमें सम्मिलित होती हैं। स्थानकवासी परम्परा में रात को स्त्रियां व्याख्यान में नहीं जा सकतीं। इस विषय में नियमों की एकरूपता नहीं है।
दिगम्बर परम्परा के संस्कार में पला हुआ व्यक्ति श्वेताम्बर मुनि को कपड़ा रखते हुए देखता है तो उसके मन में संघर्ष होता है कि यह कैसा साधु, जो वस्त्र रखता है। स्थानकवासी और तेरापंथ की परम्परा के संस्कार में पला हुआ व्यक्ति जब दिगम्बर मुनि को खुले मुंह बोलते देखता है तो मन ही मन सोचता है यह कैसा साधु, जो खुले मुंह बोलता है। युग की मांग इस प्रकार व्याख्या भेद की अनेक समस्याएं हैं, जो जैन शासन को विभक्त किए हुए हैं। क्या इन प्रश्नों को सुलझाए बिना जैन शासन की एकता की बात को आगे बढ़ाया जा सकता है? बहुत बार प्रश्न होता है-जैनों में इतने सम्प्रदाय क्यों? इसका उत्तर भी साफ है। आचार्यों के चिंतन की भिन्नता ने सम्प्रदायों को जन्म दिया है। क्या जैनशासन फिर एक शासन के रूप में उपस्थित हो सकता है। एकता का अर्थ यदि नियमगत आचार और विचार की समानता ही हो तो संभव नहीं है। विचारभेद होना विकास का लक्षण है। विकास से अविकास की ओर लौटना वांछनीय भी नहीं है। जैन शासन की एकता संभव है, यदि आचार की कसौटी संयम मानकर चलें, नियमों की अनेकता को एकता में बाधक न बनाएं, नियमों के आधार पर आचार की कठोरता एवं
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