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परिवर्तन के लिए व्यापक दृष्टिकोण चाहिये १६७
चिन्तनशील व्यक्ति हैं, ने गुरुदेव से निवेदन किया कि पर्दा निवारण के विषय में स्पष्ट उपदेश होना चाहिए । यह कोरा सामाजिक प्रश्न ही नहीं है, यह आध्यात्मिक प्रश्न भी है। उनका चिन्तन यथार्थ था पर एक साथ वैसा प्रयत्न नहीं हुआ ।
इस वर्ष गुरुदेव ने स्पष्ट भाषा में पर्दा को अनावश्यक और अहितकर बताया। इसके पीछे एक परिस्थिति भी है । गुरुदेव ने बम्बई, कलकत्ता, बिहार, यू. पी. की यात्राएं कीं। वहां आगन्तुक लोगों पर एक प्रतिक्रिया यह भी होती कि अभी गुरुदेव के आस-पास का वातावरण अज्ञानपूर्ण और अशिक्षापूर्ण है । परिषद् में पर्दे की बहुलता है। इसमें सुधार नहीं ला सके, इस तथ्यहीन रूढ़ि को नहीं बदल सके तो दूरवर्ती वातावरण में क्या परिवर्तन ला सकेंगे ?
पर्दे की उपयोगिता अब कोई है ही नहीं । लज्जा व सदाचार की दृष्टि से यह हो तो साध्वियों के लिए भी अनिवार्य माना जाता । आजकल के पतले ओढनों की स्थिति में पर्दा है भी और नहीं भी । जहां पर्दा चाहिए, वहां नहीं है और जहां नहीं चाहिए, वहां है । तत्त्व दृष्टि यह है कि ब्राह्मीघृत आदि ज्ञानावरण के क्षयोपशम के निमित्त बन सकते हैं तो पर्दा दर्शनावरण के उदय का निमित्त कैसे नहीं बनता? आंखों पर पट्टी बांधना दर्शनावरण के उदय का उदाहरण है । इस प्रकार किसी भी दृष्टि से पर्दा आज उपयोगी नहीं है । इस विषय पर या ऐसे किसी भी विषय पर लोग तत्त्व दृष्टि से विचार करें। जीवन में विकृति लाने वाले निमित्तों से बचने का यत्न करें, चिन्तन को मुक्त और व्यापक बनाएं।*
* तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह में पर्दा प्रथा के संदर्भ में प्रस्तुत वक्तव्य ।
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