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________________ परिवर्तन की परम्परा : २ १८६ क्या आज हम उनकी सुरक्षा का दायित्व भी नहीं ले सकते? ___जैन विश्वभारती के माध्यम से यह काम सुगमतापूर्वक हो सकता है। इसे केवल आप अर्थ और मकान ही न मानें। ये दोनों आवश्यक हैं उसके विकास के लिए। जहां आत्मा की बात है, वहां शरीर भी होगा। हम आपसे कहते हैं-धर्म करें। धर्म आत्मा की बात है, पर उसके साथ शरीर भी होगा। केवल शरीर को न पकड़ें। गुरुदेव जहां जाते हैं वहां आप मोटरों से आते-जाते हैं, रेलों से आते-जाते हैं, पैदल जाते-आते हैं, पंडाल बनाते हैं, पंखे लगाते हैं, बिजली लगाते हैं; और अनेक प्रवृत्तियां होती हैं। इन सबके साथ साधुओं को जोड़ना क्या समीचीन हो सकता है? इन सारी प्रवृत्तियों का दोष आप साधुओं पर डाल देते हैं और धर्म की बात, आत्मा की बात का दायित्व अपने पर लेते हैं। यह अटपटा-सा चिन्तन है। हम मूल को मूल समझें और आनुषंगिक बात को आनुषंगिक बात समझें। आचार्य भिक्षु ने कितनी सुन्दर बात कही थी-गेहूं के लिए खेती की जाती है, खाखले के लिए नहीं। घास और कडवी के लिए नहीं। हमारा यह विवेक स्पष्ट होना चाहिए कि अनाज के साथ-साथ और-और वस्तुएं भी पैदा होंगी। किन्तु किसान केवल अनाज के लिए ही खेती करेगा। दूसरी चीजें स्वतः उत्पन्न होंगी। जैन विश्वभारती के लिए ठीक वही उदाहरण है। आचार्य भिक्षु ने ठीक कहा था-धर्म आत्मशुद्धि के लिए किया जाता है, पुण्य के लिए नहीं। पर यह निश्चित है कि धर्म के साथ-साथ पुण्य का भी बन्ध होगा। आप इसे चाहें या न चाहें, यह बन्ध अवश्य होगा। आग जलेगी तो धुआं भी होगा। ___जहां जैन विद्याओं के प्रचार-प्रसार की बात आएगी वहां उनके शोध के लिए मकान भी आवश्यक होंगे और पुस्तकें भी आवश्यक होंगी। ये सारी गौण बातें हैं। हम मुख्य को मुख्य मानें और गौण को गौण। हम मूल को भुलाकर, छिपाकर, केवल गौण को ही न पकड़ें। उस पर ही न अटक जाएं। इस प्रकार मेरी चर्चा के तीन आयाम ये हैं१. नयी स्थापना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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