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१७६ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ का मतलब है-वेद अर्थात् ज्ञान। तीसरी दुर्लभ वस्तु है-श्रद्धा और चौथी है-आचरण। श्रद्धा के बाद आचरण आता है। श्रद्धा का अर्थ है घनीभूत इच्छा, प्रबलतम इच्छा। ऐसी इच्छा जो इतनी उत्कट बन जाए कि उसको पूरी करना आवश्यक हो जाए। इसका एक नाम है-दोहद-लालसा। हम कहते हैं-उस गर्भवती स्त्री के मन में दोहद उत्पन्न हुआ है। इसका अर्थ है कि उसके मन में अमुक वस्तु के प्रति तीव्र अभिलाषा उत्पन्न हुई है, जिसे पूरी करना अत्यन्त जरूरी है। यदि यह अभिलाषा पूरी नहीं होती या नहीं की जाती तो शारीरिक और मानसिक हानियां उत्पन्न हो जाती हैं। यही श्रद्धा है, घनीभूत इच्छा है। जब कोई आदमी उस विषय को जानता ही नहीं, फिर उसकी उस विषय में श्रद्धा कैसे होगी? यदि धर्म के विषय में आप कुछ नहीं जानते, उसके विषय में आपका ज्ञान नहीं है तो उसके प्रति, धर्म के प्रति आपकी श्रद्धा नहीं होगी। हम अज्ञान को श्रद्धा न मानें। इस भ्रान्ति को दूर करें। हम यह मानकर चलें कि श्रद्धा होती है ज्ञान के बाद। ज्ञानोत्तर है श्रद्धा। जिस धर्म, नियम, व्यवस्था या परंपरा को हम नहीं जानते, उसके विषय में श्रद्धा नहीं होगी। यदि श्रद्धा होती है, वास्तव में होती है तो वह इतनी कमजोर नहीं होती कि थोड़ी-सी बात से बन जाए और थोड़ी-सी बात से, टूट जाए। श्रद्धा ऐसी हो ही नहीं सकती। जो ऐसी होती है वह श्रद्धा नहीं, कुछ और है। भ्रान्तिवश हम उसे ही श्रद्धा मान लेते हैं। श्रद्धा पूरी जानकारी के बाद होगी और जो पूरी जानकारी के बाद होगी, वह वायु के झोंके से कभी नहीं टूटेगी, कभी नहीं उड़ेगी। ___बहुत बार हम सुनते हैं कि यह परिवर्तन हुआ और लोगों की श्रद्धा हिल गई। यह अयथार्थ है। कहना यह चाहिए कि अमुक विषय की जानकारी नहीं थी, अज्ञान था और वह अज्ञान थोड़ा हिल गया। अज्ञान हिलना ही चाहिए, कोई आपत्ति की बात नहीं है।
परिवर्तन का जहां प्रश्न है, सारी बातें परिवर्तन की नहीं होतीं। कुछ बातें परिवर्तन की होती हैं, कुछ नयी होती हैं और कुछ चिन्तनीय होती हैं। अनेक रूप बनते हैं परिवर्तन के। उदाहरण के लिए माइक का प्रश्न है। हम पहले माइक में नहीं बोलते थे, आज बोलते हैं। इसे परिवर्तन नहीं कहा जा सकता। परिवर्तन तो तब हो जब पहले एक बात चल
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