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________________ परिवर्तन की परम्परा : १ १७३ जानकर या अकरणीय जानकर छोड़ा है। केवल ऐसे ही नहीं छोड़ा है । मन में शंका उत्पन्न होती है कि या तो इन बातों का आचरण न करने वाले स्वामीजी साधु नहीं थे या आप इनका आचरण करने वाले साधु नहीं हैं। दोनों में से एक साधु हैं । दोनों नहीं हो सकते। या तो वे दोषी थे या आप दोषी हैं। दोनों निर्दोष नहीं हो सकते।' जयाचार्य ने सुना और कहा - 'दोनों दोषी नहीं हैं। दोनों निर्दोष हैं। दोनों उचित हैं । स्वामीजी अपने व्यवहार में शुद्ध जानकर उनको करते थे और मैंने अपने व्यवहार में शुद्ध जानकर उन्हें छोड़ा है। दोषी कोई नहीं ।' आचारांग सूत्र (५६६) का एक वाक्य है - 'समियंति मण्णमाणस्स समिया वा, असमिया वा, समिया होइ उवेहाए । असमियंति मण्णमाणस्य समिया वा, असमिया वा, असमिया होइ उवेहाए । ' -संघ अपने व्यवहार में शुद्ध जानकर कोई आचरण करता है, आचार्य अपने व्यवहार में शुद्ध जानकर किसी आचरण का प्रवर्तन करते हैं, फिर चाहे वह किसी को असम्यक् ही लगे, वह सम्यक् ही है । यदि सोचे-समझे, ठीक निर्णय लिये बिना, ठीक व्यवस्था किए बिना, चिन्तन किए बिना कोई काम कर लिया, फिर चाहे वह सम्यक् ही हो, वह असम्यक् ही होगा, दोषपूर्ण ही होगा। ऐसा आचरण मुनि को नहीं करना चाहिए। आज यहां कोई केवली नहीं है, सर्वज्ञ नहीं है । व्यवहार के आधार पर निर्णय किया जाता है । यदि व्यवहार में ठीक है, सम्यक् है, तो वह आचरण सम्यक् है । वह आचरण दोषपूर्ण नहीं होता। इस सिद्धान्त को हम ठीक से समझें । इन बातों पर हम मनन करें, इनका विश्लेषण करें तो होने वाले परिवर्तनों के विषय में मन में कोई उलझन नहीं आएगी। इससे मार्ग स्पष्ट होगा । जिस देश - काल में हम जी रहे हैं, उस देश-काल के अनुसार यदि कोई व्यवस्था परिवर्तन मांगती है, जो परिवर्तन अपेक्षित है तो उस परिवर्तन को करने में कोई दोष नहीं है । कई बार ऐसा होता है कि देश - काल की अपेक्षा के अनुसार औचित्यपूर्ण वांछनीय परिवर्तन न किए जाए तो शायद कहीं-कहीं कठिनाई पैदा हो सकती है। मैंने अनेक बातों की चर्चा प्रस्तुत की है तथा उनके पीछे रहे हुए दृष्टिकोण, सिद्धान्त और प्रक्रिया - इन तीनों को समझाने का प्रयास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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