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१६८ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ के धर्मकार्य में विघ्न उपस्थित हुआ। उसके ध्यान में बाधा आ गई। यदि वह मुनि उस क्रिया का अनुमोदन नहीं करता है, समर्थन नहीं करता है तो उसको कोई दोष नहीं लगता। उसके केवल धर्मान्तराय हुआ। आप कहेंगे कि अनुमोदन बाकी कैसे रह गया? काम तो सारा सम्पन्न हुआ, फिर अनुमोदन शेष कैसे रहा? मुनि ध्यान में थे और सम्पूर्ण अवधि तक वैसे ही ध्यान में रहे। मन से भी शल्यक्रिया का अनुमोदन नहीं किया। जो ऐसा करता है, उसके केवल धर्मान्तराय होता है, कोई दोष नहीं लगता। यह भगवती सूत्र का स्पष्ट उल्लेख और विधान है। __ इन संदर्भो से आप अनुभव करेंगे कि छेद-सूत्रों के विधि-विधान
और परम्पराएं बहुत ही विचित्र और गूढ़ रही हैं। उनके आधार पर परंपराओं में परिवर्तन होता रहता है। जब किसी कार्य की अपेक्षा होती है, उसका आचरण कर लिया जाता है। अपेक्षा नहीं होती है तो शताब्दियों में भी उसका आचरण नहीं होता।
मूल कठिनाई एक है। उसे हम समझें। वह कठिनाई यह है कि आचार्यों ने यह कहा कि छेद सूत्रों की जो सामाचारी है, प्रायश्चित्त के जो विधि-विधान हैं, उन्हें किसी गृहस्थ को तो क्या, किसी मुनि को भी सारे के सारे नहीं बताने चाहिए। किन्तु जो मुनि गीतार्थ हैं, उनके आदेशानुसार आचरण कर लेना चाहिए। मुनि भी तीन प्रकार के होते हैं
१. परिणत-जिसका ज्ञान परिपक्व है, जो उत्सर्ग और अपवाद को जानता है, जो नयदृष्टि से सम्पन्न है।
२. अपरिणत-जिसका ज्ञान परिपक्व नहीं है, अधूरा है, जो आगम के रहस्यों को नहीं जानता।
३. अतिपरिणत-जो परिपक्व नहीं है, पर अपने आपको परिपक्व मान लेता है।
आगमों का विधान है कि अतिपरिणत मुनि को भी छेद-सूत्रों के विधि-विधान नहीं बताने चाहिए। कहा है
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