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मानवीय एकता के सजग प्रहरी आचार्य तुलसी १५७ नैतिक मूल्यों का उन्नयन कर राष्ट्रीय एकता की आधार भित्ति को परिपुष्ट किया है। वास्तव में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की विस्मृति ही राष्ट्रीय एकता का विखण्डन करती है। उसकी स्मृति अथवा चेतना जागृत रहे, तो राष्ट्रीय एकता कभी विखण्डित नहीं हो सकती। अनेक सम्प्रदायों के तुमुलरव में धर्म की आवाज को बुलन्द करना सचमुच एक सूझबूझ पूर्ण और साहसिक कदम है। अन्नामलै यूनिवर्सिटी में गुरुदेव ने नैतिक मूल्यों के विकास पर एक प्रवचन किया। उन दिनों तमिलनाडु में हिन्दी विरोधी आन्दोलन पूरे वेग पर था और उस यूनिवर्सिटी के छात्र उसकी अगुवाई कर रहे थे। कुलपति ने अनुरोध किया, आप अंग्रेजी मे प्रवचन करें। गुरुदेव ने अस्वीकार कर दिया। उनका पुनः अनुरोध था-आप संस्कृत में प्रवचन करें। गुरुदेव ने उसे भी नहीं स्वीकारा और साफ-साफ कहा-यदि प्रवचन होगा तो हिन्दी में होगा अन्यथा नहीं होगा। आखिर हिन्दी में प्रवचन हुआ। __ प्रवचन का प्रारम्भ इस वाक्य से हुआ- 'मैं तमिल नहीं जानता। यदि जानता तो तमिल में प्रवचन करता। आप मेरी इस असमर्थता को क्षमा करेंगे। भाषा पर नहीं, भावना पर ध्यान देंगे। भावना की अजस्रधारा में भाषा का प्रश्न प्रवाहित हो गया। पुनः एक बार और प्रवचन करने का आग्रह छात्रों ने किया। सब आश्चर्य की मुद्रा से देख रहे थे। कुलपति स्वयं आश्चर्य निमग्न थे। छात्रों ने कहा-आपकी भाषा हृदय की भाषा है। इससे हमारा कोई विरोध नहीं है। हमारा विरोध केवल राजनीति की भाषा से है।
राजनीति ने चाहे-अनचाहे राष्ट्रीय एकता पर काफी प्रहार किए हैं। चुनावी राजनीति भेद के अणुओं से निर्मित हुई और उसकी परिणति है विखण्डन । जातीय एकता, सांप्रादायिक सद्भावना के सारे प्रयत्न चुनाव के दिनों में धराशायी हो जाते हैं। जातिवाद और संप्रदायवाद को उन दिनों जितना उभारा जाता है, उतना शायद कभी नहीं। इस सचाई का अनुभव कर गुरुदेव ने एक गोष्ठी का आयोजन किया।
२२ दिसम्बर १६५६ का दिन। कांस्टीट्युशन क्लब, कर्जन रोड, नई दिल्ली। अखिल भारतीय राजनीतिक दलों के नेताओं की परिषद् का आयोजन। आयोजक अणुव्रत समिति। सन्निधि आचार्यश्री तुलसी की।
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