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वरदान १०६ मां का आलंबन मेरा ज्ञात जगत् से संबंध बढ़ने से पहले ही टूट गया। मेरी माता के लिए अब एक मात्र आलंबन मैं ही था। एक ढाई मास का बच्चा क्या कर सकता है और क्या सहारा दे सकता है? किन्तु आलम्बन कुछ कर सकने और देने में नहीं होता। वह होता है प्यार में, सुनहरे सपनों में। वैसी माताएं अपवाद रूप ही होंगी, जिनका अपनी सन्तान से प्यार न हो और अपनी सन्तान के भविष्य के लिए आशाओं का ताना-बाना न बुनती हो। समय की दूरी को काटने की कोई कैंची है तो वह है आशा । आशा ही आशा में मैं दस वर्ष का हो गया। इस अवस्था में मुझे बहुत पढ़ जाना चाहिए था, पर मैं बहुत ही कम पढ़ा। कभी मैं मेरे गांव में रहता और कभी ननिहाल में। कभी वहां कुछ पहाड़े पढ़े और वर्णमाला पढ़ी। इससे अधिक कुछ पढ़ा, यह मुझे याद नहीं है। पहला मोड़ सातवें वर्ष में जीवन में एक मोड़ आया। मेरे चाचा की लड़की का ब्याह मेमनसिंह, पूर्वी बंगाल में था। तब मैं और मेरी माता भी वहां गई। कुछ दिन कलकत्ता में रुके। मुझे मेमनसिंह के एक स्कूल में भर्ती किया गया। मैंने वहां कुछ बंगला भाषा पढ़ी। मेमनसिंह से १२ मील की दूरी पर फूलवाड़िया है। वहां मेरे पिता की दुकान थी। उसे उठाने के लिए मुझे वहां भी जाना पड़ा। भले बेटे पिता की दुकान को जमाते हैं। मैं अपने को कपूत नहीं मानता फिर भी दुकान को उठाने के लिए मैं अधीर था, न जाने किस अज्ञात की प्रेरणा मुझे प्रेरित कर रही थी। दूसरा मोड़ दूसरा मोड़ ग्यारहवें वर्ष के आते-आते आया। मन मुनि बनने की ओर झुका। उस समय मैं मुनि की परिभाषा को नहीं जानता था, पर उसकी आत्मा मुझसे अपरिचित नहीं थी। हमें बहुत बार शाब्दिक परिचय नहीं होता, आत्मिक परिचय सहज ही हो जाता है। मेरा स्थूल मन राग और विराग की भाषा नहीं जानता था पर मेरे संस्कारों में वे दोनों जडित थे। मुनिश्री छबीलजी और पूनमचन्दजी का संकेत मिला और मेरा विराग
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