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________________ अतीत का अनावरण ६५ भी मनुष्य सफल नहीं हो रहा है, तब अन्यान्य की कठिनाइयों को हल करना तो और भी अधिक कठिन कार्य है। क्या यह सरल हो सकता है? यह प्रश्न आज भी मेरे लिए प्रश्न ही बना हुआ है। साहित्य जगत् से संपर्क साहित्यिक रुचि प्रारंभ से थी। संस्कृत में कविताएं, कहानियां लिखना चलता ही था। फिर हिन्दी में कविताएं लिखनी शुरू की। निबन्ध भी लिखे। तब हिन्दी जगत् के साहित्यकारों से संपर्क बढ़ने लगा। जैनेन्द्रकुमार, मैथिलीशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', सियारामशरण गुप्त, रामधारीसिंह 'दिनकर', कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' आदि साहित्यकारों से संपर्क हुआ। केवल संपर्क ही नहीं हुआ, आत्मीय भाव भी बना। फिर भी मन में एक असंतोष उभरता रहता था। वह बार-बार अन्तःकरण को कचोटता रहता था। क्या विचार ही अंतिम यात्रा है? क्या साहित्य-साधना ही अंतिम यात्रा है? क्या इससे आगे और कुछ नहीं है? आधुनिक युग का व्यक्ति होने के लिए आधुनिक ढंग से सोचना, आधुनिक भाव-भाषा और शैली में लिखना पर्याप्त है पर आधुनिकता पूर्ण सत्य तो नहीं है। वह एक सामयिक सत्य है। पूर्ण सत्य त्रैकालिक होता है, केवल सामयिक नहीं होता। विश्वास शाश्वत में एक बार हम लोग प्रभुदयाल डाबड़ीवाला के घर पर ठहरे हुए थे। सूर्यास्त होने को था। डॉ. राममनोहर लोहिया वहां आए। कुछ समय हम लोग बात करते रहे। सूर्यास्त हो गया। डॉ. लोहिया ने उठते हुए कहा-चलें, हम भोजन करें। मैंने कहा-सूर्यास्त हो गया। अब भोजन नहीं कर सकते। वे बोले-आप आधुनिक मुनि हैं, फिर यह कैसा प्रतिबन्ध? मैंने इसका प्रतिवाद किया- 'मैं आधुनिकता में विश्वास नहीं करता, शाश्वत में विश्वास करता हूं। जो शाश्वत में विश्वास करता है, उसका विश्वास आधुनिकता में होगा ही, पर केवल आधुनिकता में नहीं होगा। मैं मुनित्व को प्रत्यक्ष ज्ञान की साधना मानता हूं। वह त्रैकालिक के बोध से ही संभव हो सकती है। केवल आधुनिकता हमें बहुत दूर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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