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वह अपने पीछे विष छोड़ जाती है। वह विष शारीरिक या मानसिक बीमारी बनकर व्यक्ति को सताता रहता है। वह व्यक्ति अशान्त और असन्तुलित बन जाता है। मनुष्य का यह एक स्वभाव है कि वह परिणाम पर अधिक ध्यान नहीं देता। यदि वह परिणाम पर सोचने-विचारने लग जाए तो वह फिर कभी बुरी भावना नहीं कर सकता। अनिष्ट चिन्तन नहीं कर सकता। मनुष्य परिणामों से आंखें मूंदकर ही बुरी प्रवृत्तियां करता है, बुरी भावना और अनिष्ट का चिन्तन करता है।
रंग का ध्यान बहुत महत्त्वपूर्ण है। जो व्यक्ति श्वेत वर्ण में अर्ह का ध्यान करता है, वह नाना प्रकार की व्याधियों से मुक्त हो जाता है। उसके शरीर में संचित विष समाप्त हो जाता है। जो व्यक्ति अरुण वर्ण (बाल-सूर्य जैसा लाल वण) का ध्यान करता है, उसमें तेजो-लेश्या के स्पन्दन जागते हैं और उसकी मन की दुर्बलता समाप्त हो जाती है, मन की कठिनाइयां समाप्त हो जाती हैं। मनुष्य मन की कठिनाइयों से आक्रान्त है। वह उनको जानता है। मन के कुछ भी प्रतिकूल होता है तो मन टूट जाता है, बिखर जाता है, और उपद्रव करने लग जाता है। कोई अप्रिय घटना घटती है, मन टूट जाता है। कोई प्रिय व्यक्ति चला जाता है, मनुष्य आत्मघात करने को तैयार हो जाता है। मनुष्य का मन इतना कोमल और नाजुक है कि वह थोड़ी भी प्रतिकूल स्थिति को सह नहीं सकता। वह टूट जाना चाहता है। मन की इस दुर्बलता को लेश्या-ध्यान के द्वारा मिटाया जा सकता है। उसके द्वारा मन को इतना शक्तिशाली बनाया जा सकता है कि कोई घटना घटे, मन उससे टूटने से बच जाता है। घटना को नहीं रोका जा सकता, मन को टूटने से बचाया जा सकता है।
अहँ के ध्यान द्वारा भावों का भी अद्भुत ढंग से परिवर्तन होता है। जब हम इन गर्म रंगों (पीला, लाल, श्वेत) का ध्यान करते हैं और उनसे तन्मयता प्राप्त करते हैं तब हमारे भाव परिवर्तित हो जाते हैं। विचारने और सोचने की जरूरत नहीं, सहज बदल जाते हैं। सारे स्पंदन बदल जाते हैं। विचारों के, विकल्पों के और मोह के जो स्पंदन इन गर्म रंगों के स्पंदनों से रुक जाते हैं, निर्वीर्य हो जाते हैं। साथ-साथ
लेश्या : एक विधि है चिकित्सा की २०३
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