________________
जब तक उसके सारे कषाय क्षीण नहीं हो जाते, तब तक राग से सर्वथा छुटकारा नहीं हो सकता। किन्तु यहां राग का दिशान्तरण होता है। व्यक्ति का राग धर्ममय बन जाता है, धर्म के प्रति, सत्य के प्रति हो जाता है। पदार्थ के प्रति विराग हो जाता है। साधना का महत्त्वपूर्ण सूत्र है-'अनुरागाद् विरागः'-अनुराग से विराग होता है। एक के प्रति अनुराग, दूसरे के प्रति विराग। विराग और राग-दोनों सापेक्ष हैं। जब आत्मा के प्रति राग उत्पन्न होता है तब पदार्थ के प्रति विराग होता है। जब पदार्थ के प्रति राग उत्पन्न होता है तब आत्मा के प्रति विराग होता है। आत्मा और पदार्थ दोनों के प्रति एक साथ राग या विराग नहीं हो सकता।
. कछेक व्यक्ति यह कहते हैं-काम नैसर्गिक है। उसे छोड़कर नया मार्ग क्यों बनाएं? मैथुन संज्ञा प्राणी-मात्र की स्वाभाविक संज्ञा है। उसको क्यों बदला जाए? यह प्रश्न स्वाभाविक है। काम व्यक्ति का नैसर्गिक गुण है, प्राकृतिक गुण है, इतना कहने मात्र से समस्या का समाधान नहीं हो जाता। सच यह है कि जब तक हम प्राकृतिक गुणों का उदात्तीकरण नहीं कर लेते तब तक हम पशु की भूमिका में ही रह जाते हैं। पशु मनुष्य इसलिए नहीं होता कि वह प्रकृति-प्रदत्त नियमों का विकास करना नहीं जानता, मार्गान्तरीकरण या उदात्तीकरण करना नहीं जानता। मनुष्य की क्षमताओं का इसीलिए विकास हुआ कि वह प्रकृति-प्रदत्त या नैसर्गिक गुण-धर्म जो उसे उपलब्ध है, उनका शोधन करना जानता है, विकास करना जानता है, उनका उदात्तीरकण करना जानता है और उनको नया मूल्य देना जानता है। इसीलिए मनुष्य मनुष्य है। उसने नयी दिशाएं खोजी हैं और वह अपनी चेतना को सार्थक कर पाया है। यदि मनुष्य काम को नैसर्गिक मानकर बैठ जाए और पशु की भांति उसका अनियंत्रित उपयोग करता चला जाए तो समाज ही नहीं बनेगा। समाज तब बना जब उसने एक व्यवस्था की, कुछ रेखाएं खींचीं। पशु नया मार्ग खोजना नहीं जानता, नया दरवाजा खोलना नहीं जानता और अपनी ऊर्जा के प्रवाह को और अधिक उपयोगी बनाना नहीं जानता। इसीलिए वह जहां था, वहीं है और वहीं रहेगा।
१७४ आभामंडल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org