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मुक्तभोगों के प्रयोगों को मान्य नहीं करती, इसलिए विरोध होना स्वाभाविक है । किन्तु यदि हम सामाजिक विरोध की बात छोड़ भी दें और गहराई में उतरकर अनुभव के आधार पर देखें तो पता चलेगा कि भोग अध्यात्म की ओर नहीं ले जाता, कभी नहीं ले जाता ।
'मत दबाओ' का अर्थ मुक्तभोग नहीं होता । फ्रायड ने कहा कि दमन नहीं होना चाहिए । साथ-साथ उन्होंने यह भी कहा कि सब्लीमेशन होना चाहिए, ट्रान्सफोरमेशन - रूपान्तरण होना चाहिए । हमने आधी बात पकड़ ली और आगे की आधी बात छोड़ दी । यहीं से समस्या पैदा हुई । 'दबाना अच्छा है' - यह बात धर्म के मंच से भी कही जा सकती है, अध्यात्म के मंच से भी कही जा सकती है । 'मत दबाओ' का अर्थ होगा - वृत्ति की उदात्तीकरण, वृत्ति का रूपान्तरण । जब मैं अध्यात्म की भाषा में सोचता हूं, मुझे लगता कि 'काम' के रूपान्तरण की बात एक मनोवैज्ञानिक कह सकता है किन्तु अध्यात्म की भाषा में 'काम' का रूपान्तरण नहीं होता, उसका क्षयीकरण होता है, समाप्तीकरण होता है। 'काम' के परमाणु हैं, क्रोध के परमाणु हैं, उनका रूपान्तरण नहीं होता । उनको तो समाप्त ही किया जा सकता है। बड़ी कठिनाई यह हो गई कि हमने ऊर्जा को बांट लिया । यह क्रोध की ऊर्जा है और यह काम की ऊर्जा है - ऐसा मान लिया। ऊर्जा एक ही है । न काम की ऊर्जा है, न क्रोध की ऊर्जा है और न अहंकार की ऊर्जा है। ऊर्जा ऊर्जा है । वह किसी की भी नहीं है । वह शक्तिमात्र है । शक्ति का काम है दूसरे को सक्रिय करना, पुष्ट करना । यदि ऊर्जा 'काम-वासना' की ओर प्रवाहित होती है तो काम केन्द्र को सक्रिय बना देती है । यदि वह ज्ञान- केन्द्र की ओर प्रवाहित होती है तो ज्ञान- केन्द्र को सक्रिय बना देती है । यदि वह क्रोध के पास जाती है तो क्रोध की वृत्ति सक्रिय हो जाती है और यदि वह क्षमा के पास जाती है तो क्षमा की वृत्ति सक्रिय हो जाती है।
यदि हम काम-वासना के रूपान्तरण की बात स्वीकारते हैं तो 'काम' को एक शाश्वत सत्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। काम की ऊर्जा कोई शाश्वत सचाई नहीं है। वह एक आणविक संघटना है, अणुओं
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