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पशुओं में चेतना तो है, पर उसका विकास नहीं है। वह उसका सही उपयोग करना नहीं जानता । मनुष्य में चेतना का विकास है, फिर भी वह उसका सही उपयोग नहीं करता, इसलिए आनन्द को उपलब्ध नहीं होता । पशु के लिए आनन्द का प्रश्न ही नहीं उठता। जिसमें चेतना का विकास नहीं होता, उसमें आनन्द का अनुभव करने की क्षमता भी नहीं होती । जिसमें चेतना का विकास है, उसमें आनन्द का अनुभव करने की क्षमता होती है । जो चेतना का सही नियोजन कर पाता है, आनन्द का उपभोग कर लेता है । जो चेतना का सही नियोजन नहीं कर पाता, वह आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता ।
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ध्यान साधना के द्वारा व्यक्ति अपनी चेतना का इस प्रकार नियोजन करे, जिससे कि सारी शक्ति आनन्द की दिशा में प्रवाहित हो जाए और आनन्द उपलब्ध हो जाए । आनन्द का बाधक तत्त्व है - शक्ति और आनन्द का साधक तत्त्व भी है - शक्ति । शक्ति ही बाधा है और शक्ति ही साधक सामग्री है । शक्ति को ठीक दिशा में प्रवाहित करने पर आनन्द प्राप्त होता है और शक्ति को विपरीत दिशा में प्रवाहित करने पर आनन्द पर काली घटाएं उमड़ पड़ती हैं। आनन्द सारा नष्ट हो जाता है । मूल प्रश्न है शक्ति के प्रवाह का । उसको किस दिशा में प्रवाहित करना है, यह मूल प्रश्न है । शक्ति के बिना क्रोध नहीं आएगा, अहंकार नहीं आएगा, राग नहीं होगा, प्रीति नहीं होगी । काम, सेक्स, वासना भी शक्ति के बिना नहीं होगी। दुनिया का कोई भी काम शक्ति के बिना नहीं हो सकता । ईश्वरवादी कहते हैं कि ईश्वर के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता । मैं कह सकता हूं कि दुनिया में जो कुछ होता है वह शक्ति के द्वारा होता है । शक्ति के बिना कुछ नहीं होता । शक्ति के बिना न चेतना की प्रवृत्ति होती है और न आनन्द की उपलब्धि होती है । सब कुछ शक्ति से होता है। फर्क केवल इससे पड़ता है कि शक्ति किस दिशा में प्रवाहित होती है । क्रोध करने वाला अपनी शक्ति का उपयोग क्रोध की दिशा में करता है । जब हमारी ऊर्जा क्रोध की दिशा में प्रवाहित होती है, क्रोध उभर आता है । जब ऊर्जा काम-केन्द्र की ओर प्रवाहित होती है, काम उभर आता है । हमारे शरीर में क्रोध के
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आभामंडल १५७
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