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आज के डॉक्टर शरीर के एक-एक अवयव को, चाहे वह स्थूल हो या सूक्ष्म, देख चुके हैं। हृदय को देखा, मस्तिष्क के यंत्र को देखा, आंतें और गुर्दे देखे। नसों का बिछा हुआ जाल देखा। और भी सूक्ष्म चीजें देखीं। पर सब कुछ इतना ही नहीं। अदृश्य बहुत ज्यादा है। उसे देखने के लिए डॉक्टर के पास साधन नहीं हैं, औजार नहीं हैं। मैंने एक डॉक्टर से कहा-जो कछ देखा गया है वह आंखों से या आंखों के सहारे से देखा गया है, मन की चंचलता से देखा गया है, चित्त या बुद्धि की चंचलता से देखा गया है। इस प्रक्रिया से इतना ही दिखेगा। देखने की एक दूसरी प्रक्रिया है, जहां आंखें काम नहीं देतीं। उस प्रक्रिया में आंखें, बन्द, मन समाप्त और बुद्धि के दरवाजे बन्द हो जाते हैं। ऐसा करने के बाद जो दिखेगा, वह नया होगा और जो शल्य-चिकित्सा के द्वारा देखा गया नहीं होगा।
इस शरीर के भीतर अनन्त-अनन्त परमाणुओं के इतने पिण्ड हैं कि जिन्हें हम नहीं जानते, जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मैं अभी बोल रहा हूं। बोलते समय मुझे भाषा के परमाणु चाहिए। भाषा के परमाणुओं को लिये बिना कोई बोल नहीं सकता। वे भाषा के परमाणु कहां से आते हैं? मेरे भीतर भाषा के परमाणु हैं। मेरे चारों ओर भाषा के परमाणु बिखरे पड़े हैं। पहले वे दिखाई नहीं देते। किन्तु जैसे ही बोलने का संकल्प किया, उच्चारण प्रारंभ किया कि भाषा के परमाणु भीतर आकर भाषा के रूप में बदल जाते हैं। उनमें स्फोट होता है और वे भाषा के रूप में प्रकट हो जाते हैं। वे फिर बाहर निकलकर समूचे आकाश में फैल जाते हैं। कोई भी आदमी बोलता है तो वह बोलने से पहले सोचता है। बिना सोचे कोई नहीं बोलता। ये चिन्तन के परमाणु कहां से आए? चिन्तन के परमाणुओं के सहयोग के बिना कोई भी व्यक्ति चिन्तन नहीं कर सकता। ये मानस वर्गणा के परमाणु, ये चिन्तन के परमाणु समूचे आकाश में फैले हुए हैं, भरे पड़े हैं। जैसे ही चिन्तन का संकल्प किया, चिन्तन के परमाणु भीतर आते हैं, चिन्तन के रूप में परिणत होते हैं और फिर उनकी आकृतियां समूचे आकाश में फैल जाती हैं। मेरे आसपास या किसी के भी आसपास भाषा के परमाणु ६ आभामंडल
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