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अर्थ को केवल भावनात्मक दृष्टि से देखते हैं। अपनी दृष्टि से देखते हैं, सत्य की दृष्टि से नहीं देखते।
दुनिया में पदार्थ था, पदार्थ है और पदार्थ रहेगा । समाजवाद ने जो यह सूत्र प्रस्तुत किया कि सम्पत्ति व्यक्ति की नहीं समाज की है । मैं मानता हूं कि इस सूत्र से भूल का कुछ सुधार हुआ है। व्यक्ति सम्पत्ति को अपना मान बैठा था । समाजवाद के मनीषियों ने सोचा कि व्यक्तिगत सम्पत्ति की बात समाज के लिए बहुत घातक है और यह बहुत बड़ी भ्रान्ति है । इस भ्रान्ति के निराकरण के लिए उन्होंने कहा - 'सम्पत्ति पर व्यक्ति का अधिकार नहीं होना चाहिए । सम्पत्ति व्यक्ति की नहीं, समाज की होनी चाहिए ।'
सम्यग्दृष्टि को उपलब्ध व्यक्ति का सूत्र होगा- सम्पत्ति व्यक्ति की भी नहीं होती, समाज की भी नहीं होती, किसी की भी नहीं होती । सम्पत्ति सम्पत्ति की होती है । पदार्थ पदार्थ का होता है। वह किसी का नहीं होता ।
एक संस्कृत कवि ने भूमि को एक ऐसी कन्या माना है जो सदा कुमारी है और रहेगी। वह किसी की नहीं बनी और न ही बनेगी । उसके साथ कोई पाणिग्रहण नहीं कर पाया। अनेक राजे-महाराजे हो गए । अनेक शक्ति सम्पन्न सम्राट् हो गए । उन्होंने मान लिया कि अमुक भू-भाग पर उनका अधिकार है । पर यह भ्रान्ति थी । भूमि किसी की नहीं बनी। सब आए और गए । पदार्थ को अपना मानना एक भ्रान्ति है ।
अध्यात्म का सूत्र है - सम्पत्ति न व्यक्ति की है और न समाज की है । वह पदार्थ है । पदार्थ पदार्थ होता है, वह किसी का नहीं होता । सब पदार्थ अपने - अपने स्वरूप में होते हैं । कोई पदार्थ किसी का नहीं होता । यह सूत्र उपलब्ध होने पर ही समस्या सुलझ सकती है।
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सम्पत्ति को व्यक्तिगत मानने से समस्या उलझती है-इस बात का समाज ने अनुभव कर लिया । व्यक्तिगत संग्रह से विषमता फैलती है, समस्याएं बढ़ती हैं । समस्याओं का कोई समाधान नहीं होता, इसलिए सम्पत्ति समाज की होनी चाहिए, व्यक्तिगत स्वामित्व को समाप्त कर देना चाहिए - यह चिंतन लगभग दो अरब मनुष्यों का है । जो समाजवादी
तनाव और ध्यान (२) १४६
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