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पदार्थ के प्रति है, दूसरे के प्रति है, अपने प्रति नहीं है । जब दूसरे के प्रति होती है तब मन में तनाव भर जाता है। तनाव का मूल कारण है - आर्त्त-ध्यान और रौद्र- -ध्यान । तनाव का कारण भी ध्यान है और तनाव का निवारण भी ध्यान है । ध्यान से ही तनाव पैदा होता है और ध्यान से ही तनाव समाप्त होता है । जब हमारे मन की एकाग्रता पदार्थ को उपलब्ध करने में और उसके संरक्षण में लग जाती है तब मन तनाव से भर जाता है और जब मन की एकाग्रता पदार्थ से हटकर अपने आन्तरिक अनुभवों में लग जाती है तब तनाव अपने आप विसर्जित होने लग जाता है ।
तनाव का सबसे बड़ा कारण है-- आर्त्त ध्यान - पदार्थ के प्रति होने वाली एकाग्रता ।
तनाव का सबसे बड़ा कारण है - रौद्र ध्यान पदार्थ के संरक्षण के प्रति होने वाली क्रूरता । क्रूरतम एकाग्रता ।
आर्त्त और रौद्र ध्यान में लेश्याएं विकृत बन जाती हैं । उस समय काली लेश्या होती है और धूम्र वर्ण की लेश्या होती है । उस समय आभामण्डल विकृत हो जाता है; भाव - संस्थान विकृत हो जाता है । हमारे सारे भाव बदल जाते हैं । भाव विकृत होता है तो मन विकृत बन जाता है, विचार विकृत हो जाता है, आचरण विकृत हो जाता है । जब आचरण विकृत होता है तब सामाजिक सम्बन्ध भी विकृत हो जाते हैं । सब कुछ बिगड़ने लग जाता है । तब व्यक्ति में यह चिन्तन उभरता है कि सारा ढांचा बिगड़ता जा रहा है, उसे कैसे सुधारूं? यह प्रश्न उपस्थित होता है तब दिशा बदलने की बात प्राप्त होती है । व्यक्ति मुड़कर देखना चाहता है । जब वह मुड़कर देखता है तब उसे लगता है कि क्रोध बहुत सता रहा है। सामाजिक और पारिवारिक सम्बन्धों को विकृत करने वाला तत्त्व है क्रोध । अन्यान्य दोष इसके बाद आते हैं । एक व्यक्ति कुछ चाहता है, दूसरा कुछ और ही चाहता है । एक व्यक्ति के आचरण से दूसरे व्यक्ति के अहं पर चोट होती है । दूसरे व्यक्ति के आचरण से तीसरे व्यक्ति के अहं पर चोट होती है । अप्रीति बढ़ती है, वैमनस्य बढ़ता है, द्वेष बढ़ता है । द्वेष, कोई मौलिक बात नहीं है, मूल है राग । वास्तव
१४६ आभामंडल
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