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________________ से देख सकते हैं, सोच सकते हैं। एक्यूपंक्चर के वैज्ञानिक ने हमारे शरीर में सात सौ चैतन्य केन्द्र खोज निकाले हैं। जो मस्तिष्क में है, वही केन्द्र अंगूठे में भी है। जो मस्तिष्क में है; वही केन्द्र अंगुलियों में भी है। पिनियल, पिच्यूटरी और थाइराइड के जो स्थान हैं, वे स्थान हाथों और पैरों में भी हैं। हमारा समूचा शरीर चेतना का केन्द्र है। उसमें जानने की अपार क्षमता है। कान ध्वनि पकड़ने का माध्यम है। किन्तु जिनके कान नहीं हैं, वे समूचे शरीर से ध्वनि को पकड़ लेते हैं। शरीर की संवेदना इतनी शक्तिशाली हो जाती है कि समूचे शरीर से ध्वनि को पकड़ लेते हैं। ध्वनि को पकड़ने की जरूरत भी नहीं है। ध्वनि पकड़ने के माध्यम से कान को विकसित कर हमने ध्वनि को सीमित कर दिया। हम कानों पर इतने निर्भर हो गए कि हम केवल कानों से ही सुन सकते हैं। अतीन्द्रिय क्षमताएं विस्मृत हो गईं। ध्वनि तब होती है जब कोई बोलता है। ध्वनि कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है तरंग। जो व्यक्ति तरंगों को, सूक्ष्म प्रकम्पनों को पकड़ सकता है वह जितना जान सकता है, उतना ध्वनि को सुनने वाला नहीं जान सकता। हम इन्द्रियों पर इतने निर्भर हो गए कि जब कानों में कोई शब्द पड़ता है तभी हम सुन सकते हैं। कान की क्षमता सीमित है। अमुक फ्रीक्वेन्सी के शब्द ही सुन पाता है। पकड़ पाता है। किन्तु जो व्यक्ति प्रकम्पनों को पकड़ सकता है, वह सूक्ष्म ध्वनियों को पकड़ सकता है, जान सकता है। तीर्थंकर जब बोलते हैं, तब सुनने वाले उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ जाते हैं। पशु भी अपनी भाषा में समझ जाते हैं। यह कैसे होता है? इसके पीछे बहुत बड़ा रहस्य छिपा हुआ है। तीर्थंकर बोलते नहीं, दिव्य ध्वनि निकलती है, यदि हम इस बात को मान लें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थंकर के वाणी के नहीं, मन के परमाणु निकलते हैं, उनमें स्पंदन होता है। उन स्पंदनों को लोग पकड़ते हैं और वे उनको अर्थ-बोध करा देते हैं। भाषा के पुद्गल नहीं पकड़े जा सकते, तरंगों को पकड़ा जा सकता है, स्पंदनों को पकड़ा जा सकता है। हमारे पास तरंगों को पकड़ने की क्षमता अधिक है, भाषा को पकड़ने की क्षमता कम है। जब हमने यह मान ही लिया कि कान तनाव और ध्यान (१) १३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003062
Book TitleAbhamandal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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