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किन्तु पदार्थ का जो सूक्ष्म स्वरूप है, तर्कातीत स्वरूप है, वह इन्द्रिय, मन और बुद्धि का विषय नहीं बनता। सूक्ष्म पर्याय तर्कातीत होते हैं। वे इन्द्रिय, मन और बुद्धि से नहीं पकड़े जा सकते।
मध्यकाल में दर्शन का स्वरूप बदल गया। उस पर तर्क हावी हो गया और यह मान लिया गया कि दर्शन को तर्क द्वारा ही समझा जा सकता है। दर्शन और तर्क-दोनों पर्यायवाची जैसे बन गए। किन्तु तर्क दर्शन का बहुत छिछला भाग है। समुद्र के तट को पूरा समुद्र नहीं कहा जा सकता। वह समुद्र का छिछला भाग है जहां सीपियां ही उपलब्ध होती हैं। समुद्र की गहराई में कुछ और ही उपलब्ध होता है। वहां रत्न मिलते हैं। दर्शन की गहराई तर्क से नहीं नापी जा सकती। तर्क के द्वारा दर्शन की व्याख्या नहीं की जा सकती। दर्शन का एक उथला भाग स्थूल पर्यायों को अभिव्यक्ति देता है। वह भाग भले ही तर्क के द्वारा समझा जा सकता हो किन्तु सूक्ष्म पर्याय की अभिव्यंजना तर्क के द्वारा नहीं हो सकती। वह केवल अनुभव के द्वारा हो सकती है। मध्यकाल की धारणा ने हमारी अनुभव की चेतना को सुला दिया। हम केवल तर्क के मन्थन में ही उलझ गए। स्व-अनुभव और प्रयोग-परीक्षा की बात ही छूट गई, विस्मृत हो गई। विज्ञान ने इसीलिए विकास किया कि वह केवल सिद्धांत के आधार पर नहीं चला, केवल तर्क के आधार पर नहीं चला। उसने सिद्धांत और तर्क का सहारा लिया, किन्तु उस पर ही आधृत नहीं रहा। दर्शन इसलिए कोई नई देन नहीं दे सका कि वह केवल तर्क के सहारे चलता रहा। उसने केवल शास्त्र, वाङ्मय
और सिद्धांत का ही सहारा लिया। आज के विज्ञान की दौड़ में दर्शन इतना पीछे रह गया कि मानो दोनों में कोई सम्बन्ध ही न हो। वास्तव में दर्शन और विज्ञान दो नहीं हैं। विज्ञान दर्शन से भिन्न नहीं है और दर्शन विज्ञान से भिन्न नहीं है। दर्शन पिता है तो विज्ञान उसका पुत्र है। पिता पुत्र से या पुत्र पिता से सर्वथा भिन्न नहीं हो सकता। किन्तु आज वे सर्वथा भिन्न प्रतीत हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह केवल दो पीढ़ियों का ही अन्तराल है, किन्तु ऐसा लगता है कि मानो दोनों को स्वतंत्र मार्ग है। उनमें कोई भाई-चारा नहीं, कोई सम्बन्ध नहीं है।
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