SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 2. अहिंसा का व्यावहारिक स्वरूप 2.1 हमारी जीवन-शैली और अहिंसा एक प्रश्न पैदा हुआ कि मनुष्य में हिंसा का जन्म कैसे हुआ ? उसके पुरखे आपस में मिलजुल कर रहना सीख गए थे। प्राइमेट कुल के नर-वानर आपस में मिलजुल कर रहते थे। उनसे पहले स्तनधारी प्राणी आपस में मिलजुलकर रहना सीख चुके थे। जब आपस में सब मिलकर रहते थे तो फिर मनुष्य में हिंसा का जन्म कैसे हुआ? यह एक प्रश्न है और है अनुत्तरित प्रश्न । इस पर काफी खोज हुई है, पर इसका समाधान हुआ हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मनुष्य भी सामाजिक प्राणी है। वह समाज में जीता है और मिल-जुलकर रहता है। सामाजिक जीवन का अर्थ है संबंध का जीवन । अनेक संबंध स्थापित हुए हैं। संबंधों के अनेक आधार हैं। मनुष्य में काम है, इसलिए उसने परिवार बनाया है। उसने अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए परिवार का गठन किया है, संबंध स्थापित किया है। उसमें स्नेह है इसलिए अपने मित्रों का वर्ग तैयार किया है। उसमें अहं है, अतः विशिष्टता का चयन किया है। ये सारे संबंध उपयोगिता के आधार पर बने। आपस में मिलजुल कर रहते हैं, इतने मात्र से अहिंसा की कल्पना कर लेना शायद संगत बात नहीं है। इन सारे संबंधों से व्यावहारिक अहिंसा फलित हुई है। एक आदमी दूसरे आदमी को नहीं सताता। पड़ोसी पड़ौसी को नहीं सताता। परिवार का आदमी परिवार को नहीं सताता। क्या यह अहिंसा है ? अगर अहिंसा है तो थोड़ी स्वार्थ की पूर्ति न होने पर पता लगे कि क्या होता है ? कैसे रंग खिलता है ? जीवनशैली और अहिंसा से सम्बन्धित तथ्य इस प्रकार हैं। स्वार्थ से जुड़ी अहिंसा पति और पत्नी का स्वार्थ जुड़ा हुआ है। पति पत्नी को नहीं सताता और पत्नी पति को नहीं सताती। किन्तु जहां स्वार्थ की टक्कर होती है वहां पति-पत्नी में भी झगड़ा हो जाता है। भाई-भाई को नहीं सताता किंतु जहां स्वार्थ की टक्कर होती है वहां वे झगड़े पर उतारू हो जाते हैं। ऐसी अनेक घटनाएं मिलती हैं कि पतिपलि को मार देता है और पलि-पति को मार देती है। यदि साथ में रहने को अहिंसा मान लें तो हिंसा की बात हो ही नहीं सकती। यह व्यावहारिक अहिंसा है। यानी अहिंसा का एक व्यावहारिक प्रयोग है, पारमार्थिक नहीं। व्यावहारिक अहिंसा के पीछे स्वार्थ जुड़ा हुआ होता है, उसमें स्वार्थ निहित होता है। स्वार्थ पर आधारित अहिंसा वास्तविक नहीं होती। एक दूसरे को नहीं सताना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy