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अहिंसा का सिद्धान्त 'गीता' में अहिंसा की व्याख्या करते हुए लिखा है:
समं पश्यन् हि सर्वत्र, समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं, ततो याति परां गतिम् ॥ -ज्ञानी पुरुष ईश्वर को सर्वत्र समान रूप से व्यापक हुआ देखकर-भरा हुआ देखकर हिंसा की प्रवृत्ति नहीं करता, क्योंकि वह जानता है कि हिंसा करना खुद अपनी ही घात करने के बराबर है और इस प्रकार हृदय के शुद्ध और पूर्णरूप से विकसित होने पर वह उत्तम गति को प्राप्त होता है, यानी उसे इस विश्व के बृहत्तम तत्त्व ब्रह्म की प्राप्ति होती है।
कर्मणा मनसा वाचा, सर्वभूतेषु सर्वदा।
अक्लेशजननं प्रोक्ता, अहिंसा परमर्षिभिः ॥ -मन, वचन तथा कर्म से सर्वदा किसी भी प्राणी को किसी भी तरह का कष्ट नहीं पहुंचाना-इसी को महर्षियों ने अहिंसा कहा है।
महात्माजी ने अहिंसा की व्याख्या करते हुए लिखा है:
'अहिंसा के माने सूक्ष्म जन्तुओं से लेकर मनुष्य तक सभी जीवों के प्रति समभाव।"
पूर्ण अहिंसा सम्पूर्ण जीवधारियों के प्रति दुर्भावना का सम्पूर्ण अभाव है। इसलिए वह मानवेतर प्राणियों, यहां तक कि विषधर कीड़ों और हिंसक जानवरों का भी आलिंगन करती है।
13 अहिंसा का विश्लेषण ____ अहिंसा के पुराने और नए सभी आचार्यों ने यही बताया है कि कृत, कारित अनुमोदित-मनसा, वाचा, कर्मणा-प्राणीमात्र को कष्ट न पहुंचाना ही अहिंसा है किसी भी आचार्य ने अपनी परिभाषा में सूक्ष्म जीवों की हिंसा की छूट नहीं दी है और न उनकी हिंसा को अहिंसा बताया है।
इस निर्णय के अनन्तर ही जटिल समस्या यह रहती है कि ऐसी अहिंस को पालता हुआ मानव जीवित कैसे रह सके? इसके समाधान में विभिन्न विचारधाराएं चल पड़ीं। जैनाचार्यों ने इसका उत्तर यह दिया कि पूर्ण संयम किए बिना कोई भी मानव पूर्ण अहिंसक नहीं बन सकता। पूर्ण संयमी के सामने मुख्य प्रश्न अहिंसा है जीवन-निर्वाह का प्रश्न उसके लिए गौण होता है। उसे शरीर से मोह नहीं होता शरीर उसे तब तक मान्य है, जब तक कि वह अहिंसा का साधन रहे, अन्यथा उसे शरीरत्याग करने में कोई भी संकोच नहीं होता। जैसा कि आचारांग में बताया है:
1. मंगल प्रभात, पृ.811 2. गांधीवाणी, पृ. 371
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