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________________ 234 अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग ब्रह्मचर्य (अनुप्रेक्षा के बाद स्वाध्याय और मनन आवश्यक है।) ब्रह्मचर्य का महत्त्व इंद्रिय और मन के विकेन्द्रित होने का अर्थ है- मनुष्य की शक्ति का विकेन्द्रित होना। उनके केन्द्रित होने का अर्थ है- शक्ति का केन्द्रित होना । पदार्थ या व्यक्ति के प्रति हमारी आसक्ति होती है, तब शक्ति पर आवरण आता है। उनके प्रति अनासक्ति होते ही वह आवरण हट जाता है। ब्रह्मचर्य का बहुत बड़ा फल है -अनासक्ति या अनासक्ति का बहुत बड़ा फल है- ब्रह्मचर्य । जैसे-जैसे अनासक्ति विकसित होती है वैसे-वैसे ब्रह्मचर्य विकसित होता है और जैसे-जैसे ब्रह्मचर्य विकसित होता है वैसे-वैसे अनासक्ति विकसित होती है। मन जितना कामवासना में उलझता है, उतना ही उसका संकल्प दुर्बल होता है । वह जितना स्थिर-शांत रहता है, उतना ही संकल्प प्रबल होता है। . वीर्य क्षीण होने से चित्त की चंचलता बढ़ती है और जब वह ओजरूप में बदल जाता है तब चित्त स्थिर और शांत होता है। धृति, तितिक्षा, शांति, मैत्री और प्रतिभा की कुशाग्रीयता- ये स्थिर-शांत चित्त में ही जन्म लेते हैं। उदाहरण के रूप में कुछ नाम पहले प्रस्तुत किये जा चुके हैं। उसी श्रृंखला में आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य शंकर और स्वामी दयानन्द के नाम उल्लिखित किए जा सकते हैं। शारीरिक दृष्टि से ब्रह्मचर्य का कम महत्त्व नहीं है। भोग-काल में श्वास की गति सामान्य स्थिति से चौगुनी हो जाती है। उससे स्वास्थ्य और दीर्घायु दोनों प्रभावित होते हैं। इसलिए आयुर्वेद में अब्रह्मचर्य को अनायुष्य और ब्रह्मचर्य को आयुष्य कहा गया है। वर्तमान चिकित्सक पचास वर्ष की आयु के बाद ब्रह्मचारी रहने में अधिक लाभ की संभवना का निरूपण करते हैं। वैदिक वर्ण-व्यवस्था में पचास पर्ष के बाद वानप्रस्थ आश्रम का विधान किया गया है। उसके पीछे भी संभव है यह दृष्टि रही हो। इस प्रकार अनेक दृष्टिकोणों से ब्रह्मचर्य का महत्त्व असंदिग्ध है, भगवान महावीर ने इसे संभवतः सर्वाधिक महत्त्व दया है। भगवान् ने कहा एए य संगे समइक्कमित्ता, सुहुत्तरा चेव भवन्ति सेसा । जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा॥ -"जो मनुष्य स्त्री-विषयक आसक्तियों का पार पा जाता है, उसके लिए शेष सारी आसक्तियां वैसे ही सतर (सुख से पार पाने योग्य) हो जाती हैं जैसे महासागर का पार पाने वाले के लिए गंगा जैसी बड़ी नदी।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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