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अहिंसा का सिद्धान्त
मन, वचन और काया- इनमें से किसी एक के द्वारा किसी प्रकार के जीवों की हिंसा न हो, ऐसा व्यवहार ही संयमी जीवन है । ऐसे जीवन का निरन्तर धारण ही अहिंसा है ।'
सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसलिए निर्ग्रन्थ प्राणीवध का वर्जन करते हैं P
सभी प्राणियों को अपनी-अपनी आयु प्रिय है, सुख अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल है । वध सबको अप्रिय है, जीना सबको प्रिय है । सब जीव लम्बे जीने की कामना करते हैं । सभी को जीवन प्रिय लगता है
अज्ञानी मनुष्य इन पृथ्वी आदि जीवों के प्रति दुर्व्यवहार करते हुए पाप-कर्म का उपार्जन करते हैं
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जो व्यक्ति हरी वनस्पति का छेदन करता है, वह अपनी आत्मा को दण्ड देने वाला है । वह दूसरे प्राणियों का हनन करके परमार्थत: अपनी आत्मा का ही हनन करता है
आत्मौपम्य-दृष्टि
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सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय की वृत्ति प्राणी मात्र में तुल्य होती है । अहिंसा की भावना को समझने और बलवान् बनाने के लिए यह आत्म- तुला का सिद्धान्त अत्यन्त उपयोगी है । इसीलिए भगवान् महावीर ने बताया है-छह जीव - निकाय को अपनी आत्मा के समान समझो '
'प्राणीमात्र को आत्म-तुल्य समझो ।”
'हे पुरुष ! जिसे तू मारने की इच्छा करता है, विचार कर - वह तेरे जैसा ही सुख-दुख का अनुभव करने वाला प्राणी है, जिस पर हुकूमत करने की इच्छा 1. दशवैकालिक 8/3 : तेसिं अच्छणजोएण, निच्वं होयव्वयं सिया । मणसा कायवक्केण, एवं हवइ संजए ॥
2. वही, 6/10 : सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविडं न मरिज्जिरं । तम्हा पाणवहं घोरं, णिग्गंथा वज्जयंति णं ॥
3. आचारांग 1/2/63, 64 : सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा, पियजीविणो जीविउकामा । सव्वेसिं जीवियं पियं ।
4. सूत्रकृतांग 1/2/63, 64
5. आचारांग, 1/7/9
6. दशवैकालिक 10 / 5 : अत्तसमे मन्निज्ज छप्पिकाये।
7. सूत्रकृतांग 1/10/3 : आय तुले पयासु
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