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अनुप्रेक्षाएं
+ शक्ति के विकास के लिए अभय की साधना करूं, यह मेरा दृढ़ निश्चय है।
+ मैं निश्चित ही भय से छुटकारा पा लूंगा।
10 मिनट
7. महाप्राण - ध्वनि के साथ प्रयोग सम्पन्न करें।
मनन और स्वाध्याय
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( अनुप्रेक्षा के अभ्यास के बाद स्वाध्याय और मनन आवश्यक है ।), अप्रमाद और अभय
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जब अप्रमाद जागता है तब भय समाप्त हो जाता है । भगवान् महावीर का सूत्र है--' सव्वओ पमत्तस्स भयं । " सव्वओ अपमत्तस्स णत्थि भयं ।' प्रमादी को भय होता है। अप्रमादी भयमुक्त होता है। जहां प्रमाद है वहां भय है। जहां अप्रमाद है वहां अभय है। मूर्च्छा टूटी, अप्रमाद आया और अभय घटित हुआ। आज का प्रत्येक आदमी भयभीत है। बड़ा-से-बड़ा व्यापारी भी भयमुक्त नहीं है। अध्यापक भी भयमुक्त नहीं है । वह भले ही दूसरों को भय की बात न कहे, पर भीतर ही भीतर वह भयाक्रान्त है कि aa कैसे विद्यार्थी उसकी पिटाई कर दे ? कब मिनिस्टर या अन्य शिक्षाधिकारी उस पर झूठे - सच्चे आरोप लगाकर निष्कासित कर दे ? सर्वत्र भय व्याप्त है, क्योंकि सर्वत्र प्रमाद है, विस्मृतियां हैं, असत्य है । प्रज्ञा सोई पड़ी है, केवल बुद्धि का जागरण हुआ है। बुद्धि भय को नहीं मिटा सकती। वह भय को सूक्ष्मता से पकड़ लेती है । बुद्धिमान आदमी भय को दूर से पकड़ लेता है। आज के वैज्ञानिक भयग्रस्त हैं। आबादी बढ़ रही है । वह दिन भी आ सकता है जिस दिन आदमी को खाने के लिए अनाज नहीं मिल सकेगा। आबादी की यही रफ्तार रही तो वह दिन भी दूर नहीं है जब आदमी को चलने के लिए रास्ता नहीं मिल पाएगा। उसे रहने के लिए मकान और खाने को रोटी नहीं मिल पाएगी। वैज्ञानिक इन सारी समस्याओं से भयभीत हैं। सामान्य आदमी के समक्ष यह भय नहीं है । वह इस विषय में जानता ही नहीं, सोचता ही नहीं, वैज्ञानिक जानता है, निष्कर्ष निकालता है। सौ वर्ष बाद कोयला और पैट्रोल समाप्त हो जाएंगे, ऊर्जा के सारे स्रोत समाप्त हो जाएंगे, उस समय विश्व की क्या स्थिति होगी ? यह भय वैज्ञानिक को है, औरों को नहीं । वे इसकी कल्पना ही नहीं कर सकते। बुद्धि जितनी प्रखर, तेज होगी उतना भय बढ़ेगा। बुद्धि का काम भय को मिटाना नहीं है। उसका काम है नए-नए भयों को उत्पन्न करना। अभय आता है प्रज्ञा से । जब प्रज्ञा जागती है, तब आदमी' तथाता' बन जाता है । ' तथाता' का अर्थ है वर्तमान में जीना, जो प्राप्त है उसे स्वीकार कर लेना। घटना को घटना के रूप में स्वीकार कर लेना 'तथाता' है। उसके साथ भय को जोड़ना आवश्यक नहीं है। 'तथाता' आती है प्रज्ञा से । बाह्य विस्मृति और अन्तर्जागरण यह है ' तथाता' ।
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