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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग साथ हिंसा आदि भी विकसित हुईं। हिंसा आदि के विकास से नव-निर्मित समाज में अव्यवस्था फैली, उसे कुलकर नहीं संभाल सके। उस परिस्थिति में राजतंत्र का उदय हुआ। दण्ड के द्वारा हिंसा आदि की रोकथाम और व्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न किया गया। यह हिंसा और उसके दमन की आदिम कहानी है।
जिस दिन मनुष्य समाज के रूप में संगठित रहने लगा, आपसी सहयोग, विनिमय तथा व्यवस्था के अनुसार जीवन बिताने लगा, तब उसे सहिष्णु बनने की आवश्यकता हुई। दूसरे मनुष्य को मारने, सताने और कष्ट न देने की वृत्ति बनी। प्रारम्भ में अपने परिवार के मनुष्यों को न मारने की वृत्ति रही होगी, फिर क्रमशः अपने पड़ोसी को, अपने ग्रामवासी को, अपने राष्ट्रवासी को, होते-होते किसी भी मनुष्य को न मारने की चेतना बन गई। मनुष्य के बाद अपने उपयोगी जानवरों और पक्षियों को भी न मारने की वृत्ति बन गई। अहिंसा की यह भावना सामाजिक जीवन के साथ-साथ ही प्रारम्भ हुई और उसकी उपयोगिता के लिए ही विकसित हुई, इसलिए उसकी मर्यादा बहुत आगे नहीं बढ़ सकी। वह समाज की उपयोगिता तक ही सीमित रही।।
सामाजिक जीवन, आवश्यकताओं का विकास और प्रवृत्तियों का विकास-यह सामाजिक विकास का प्रवाह-क्रम है । इनमें दो विरोधी धाराएं विकसित होती हैं । जैसे
1. हिंसा और अहिंसा, 2. सत्य और असत्य, 3. चौर्य और अचौर्य, 4. स्वार्थ और परार्थ ।
यदि हिंसा आदि तत्व ही विकसित होते तो सामाजिक जीवन उदित होने से पहले ही अस्त हो जाता और यदि अहिंसा आदि तत्त्व ही विकसित होते तो सामाजिक जीवन गतिशील नहीं बनता । इस तथ्य की स्वीकृति वास्तविकता की अभिव्यक्ति मात्र होगी कि हिंसा और अहिंसा-ये दोनों तत्त्व सामाजिक अस्तित्व को धारण किए हुए हैं । ये दोनों भिन्न दिशागामी हैं, इसलिए इन्हें विरोधी धाराएं कहा जा सकता है किन्तु दोनों एक लक्ष्य (समाज-विकास) गामी हैं, इस स्तर पर इन्हें अविरोधी धाराएं भी कहा जा सकता है । आत्मा का अस्तित्व और अहिंसा
कोई भी विकास एकपक्षीय धारा में अपना अस्तित्व बनाए नहीं रह सकता है । हर विकास की प्रतिक्रिया होती है और उसके परिणामस्वरूप प्रतिपक्षी तत्त्व का विकास-क्रम प्रारम्भ होता है । भौतिक अस्तित्व की प्रतिक्रिया ने मनुष्य को
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