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नहीं है। मूल सिद्धान्त को समझना है कि आदमी बदलता कैसे है ? बदलने का बिन्दु कौन-सा है ? जब तक हम रूपान्तरण के बिन्दु को नहीं पकड़ेंगे, तब तक कितनी ही नैतिक शिक्षा की बात करें, सार्थकता नहीं होगी। बदलने का बिन्दु है हमारा मस्तिष्क । वहां जब तक हम नहीं पहुंचेंगे, परिवर्तन नहीं होगा। बहुत बार लोग नैतिकता, धर्म, अध्यात्म की चर्चा सुनते हैं, सेमिनारों, कान्फ्रेन्सों में भाग लेते हैं, किन्तु वहां सिर्फ भाषायुक्त शिक्षा दी जाती है, केवल वाङ्मय होता है। जो शिक्षा केवल वाणी के द्वारा ही दी जाती है, उसका कुछ इंप्रेशन भी होता है, मस्तिष्क में भी वह जाती है, किन्तु उसका प्रभाव अस्थायी होता है । अगर वाणी का असर ज्यादा होता तो आज सारे धार्मिक जगत् का कायापलट हो जाता, सब बदल जाते किन्तु बदलते नहीं हैं। शिकायत यही है कि इतना सुनते हैं किन्तु कुछ भी असर नहीं होता ।
परिवर्तन की प्रक्रिया
बदलाव क्यों नहीं आता ? इनके हेतु को अध्यात्म के आचार्यों ने दो-तीन हजार वर्ष पहले पकड़ लिया था । महावीर ने कहा-सवणे, नाणे, विन्नाणे, पच्चक्खाणे' - पहले सुनें, फिर ज्ञान होता है, फिर विवेक की चेतना जागती है, फिर प्रत्याख्यान होता है। हेय को छोड़ना, उपादेय को स्वीकार करना और उपेक्षणीय की उपेक्षा करना संभव होता है। पूरी प्रक्रिया से चलें । उपनिषद् का सूत्र है - श्रवण, मनन और निदिध्यासन । कोरा सुनने, पढ़ने से अधूरा काम होता है। श्रवण के बाद मनन चले । मनन से भी पूरा काम नहीं होता। उसके बाद निध्यासन चले, अनुशीलन और अभ्यास चले। एक बात सुन ली। मात्र सुनने से परिणाम नहीं आयेगा । उसका अभ्यास करें । दीर्घकाल तक और निरन्तर वह अभ्यास चले, तब संस्कार का निर्माण होगा ।
समस्या चरित्र की
एक भाई ने कहा - महाराज ! मन बड़ा चंचल और बेचैन है, कोई उपाय बताए ? अभी तो मैं जा रहा हूं। मैंने कहा- 'तुम अगर कोई बौद्धिक प्रश्न पूछते तो दो मिनट में उत्तर दे देता । किन्तु प्रश्न है भीतर का और उसका उत्तर तुम चाहते हो दो मिनट में। मेरे बताने से भी कुछ नहीं होगा। इसके
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जीवन विज्ञान के प्रयोग : २११
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