________________
अतीन्द्रिय चेतना
३४५
कोटि के हैं । उनकी स्पष्टता के लिए शरीरगत चैतन्य- केंद्रों को निर्मल बनाना होता है । संयम और चरित्र की साधना जितनी पुष्ट होती है, उतनी ही उनकी निर्मलता बढ़ती जाती है । चैतन्य- केंद्रों को निर्मल बनाने का सबसे सशक्त साधन है ध्यान । प्रियता और अप्रियता के भाव से मुक्त चित्त नाभि के ऊपर के चैतन्य- केंद्रों-आनन्द- केंद्र, विशुद्धि-केन्द्र, प्राण-केन्द्र, दर्शन-केंद्र, ज्योति केंद्र और ज्ञान केन्द्र पर केन्द्रित होता है, तब वे निर्मल होने लग जाते हैं । इसका दीर्घकालीन अभ्यास अतीन्द्रिय ज्ञान की आधारभूमि बन - जाता है । अतीन्द्रियज्ञान के धुंधले रूप चरित्र के विकास के बिना भी संभव हो सकते हैं किंतु अतीन्द्रिय चेतना के विकास के साथ चरित्र के विकास का गहरा संबंध है । यहां चरित्र का अर्थ समता है, राग-द्वेष या प्रियता - अप्रियता के भाव से मुक्त होना है । उसकी अभ्यास पद्धति प्रेक्षा ध्यान है । प्रेक्षा का अर्थ है - देखना | देखने का अर्थ है चित्त को राग-द्वेष से मुक्त कर ध्येय का अनुभव करना । दर्शन की इस प्रक्रिया को अतीन्द्रिय चेतना के विकास की प्रक्रिया कहा जा सकता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org