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प्रतीन्द्रिय चेतना
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का सृजन इस स्थूल-शरीर से नहीं होता। उसका सृजन सूक्ष्म और सूक्ष्मतर शरीर से होता है। सूक्ष्म शरीर से आने वाले प्रतिबिम्ब और प्रकंपन हाईपोथेलेमस के द्वारा ग्रन्थितंत्र में उतरते हैं। जैसा भाव होता है, वैसा ही प्रन्थियों का स्राव होता है और स्राव के अनुरूप ही मनुष्य का व्यवहार और आचरण बनता है। यह कहने में कोई जटिलता नहीं लगती कि मनुष्य के व्यवहार और आचरण का नियंत्रण ग्रन्थितंत्र करता है और ग्रन्थितंत्र का नियंत्रण हाइपोथेलेमस के माध्यम से भावतंत्र करता है और भावतंत्र सूक्ष्मशरीर के स्तर पर सूक्ष्म-चेतना के साथ जन्म लेता है। स्मृति, कल्पना और चिन्तन की पवित्रता से भावतंत्र प्रभावित होता है और उससे ग्रन्थितंत्र का स्राव बदल जाता है। उस रासायनिक परिवर्तन के साथ मनुष्य का व्यवहार और आचरण भी बदल जाता है। यह परिवर्तन मनुष्य की अतीन्द्रिय चेतना को सक्रिय बनाने में बहुत सहयोग करता है। समानता का दर्शन
हमारी अतीन्द्रिय चेतना जाग सकती है यदि हमारी ऐसी दृष्टि विकसित हो जाए, प्रज्ञा इतनी निर्मल हो जाए कि हम असमानता के नीचे छुपी हुई समानता को देख सकें ।
___कबीर का बेटा कमाल घास काटने जंगल में गया। सांझ तक घर नहीं लौटा। कबीर चिन्तित हो गए। वे उसे खोजते-खोजते जंगल में पहुंचे। उन्होंने देखा-कमाल पागल की तरह निष्क्रिय खड़ा है। वह घास को देख रहा है, काट नहीं रहा है । कबीर ने उसे झझकोरा, पूछा-क्या कर रहे हो ? सूर्य अस्त हो चुका है। घास काटा ही नहीं। कमाल बोला-किसे काटूं ? क्या अपने आपको काटूं ? जैसी प्राणधारा मेरे भीतर प्रवाहित हो रही है वैसी ही प्राणधारा इस घास के भीतर प्रवाहित होते हुए देख रहा हूं। कैसे काटूं ? किसे काटूं ? अब कमाल घास नहीं काट सकता।
समाबता की अनुभूति को भगवान् महावीर ने इस प्रकार अभिव्यक्ति दीतुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि
पुरुष ! तू जिसे मारना चाहता है, वह तू ही है ।
इसी संदर्भ में समानता की अनुभूति के उनके ये वाक्य माननीय हैंतुमंसि नाम सच्चेव ज अज्जावेयध्वं ति मन्नसि ।
जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है । तुमंसि नाम सच्चेव जं परितावेयध्वं ति मन्नसि।
जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है ।
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