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चित्त और मन
जिसे आसमानी रंग पसन्द होता है वह बोलने में दक्ष, सहदय और गम्भीर होता है । वह मनोविकार, उत्साह आदि वृत्तियों पर नियंत्रण पा लेता है। जिसे पीला रंग पसन्द हो, वह विचारक और आदर्शवादी होता है। लाल रंग को पसन्द करने वाला व्यक्ति साहसी, आशावान्, सहिष्णु और व्यवहारकुशल होता है। काले रंग को पसन्द करने वाला दीनभावना से घिरा होता है । श्वेत रंग को पसन्द करने वाला सात्त्विक वृत्ति और सात्त्विक भावना वाला होता है।
सूर्य का रंग पारे के समान श्वेत, चन्द्रमा का रंग चांदी के समान रूपहला, मंगल का तांबे के समान लाल, बुध का हरा, वृहस्पति का सोने के समान पीला, शुक्र का नील, शनि का आसमानी, राहु का काला, केतु का भासमानी रग है। इनकी किरणें भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रभाव डालती हैं। सूर्य की किरणें निर्मल होती हैं तो उनका भिन्न प्रकार का प्रभाव होता है। उसकी किरणों के साथ मंगल आदि दूसरे ग्रहों की किरणें मिल जाती हैं तब उनका प्रभाव दूसरे प्रकार का होता है ।
रंगों के गुणों और प्रभावों का विस्तृत विश्लेषण प्राप्त होता है । प्रत्येक रग के अनेक पर्याय होते हैं और प्रत्येक पर्याय के गुण और प्रभाव भिन्न-भिन्न होते हैं । निर्मल भावना, ध्येय और उसके अनुरूप रंगों का चयन कर अनेक मानसिक समस्याओं को सुलझाया जा सकता है । लेश्या और चैतन्य-केन्द्र
हमारे शरीर में अनेक चैतन्य-केन्द्र हैं। जब आर्त और रौद्रध्यान होता है तब अशुद्ध लेश्या होती है। उस स्थिति में चैतन्य-केन्द्र सुप्त रहते हैं। धर्म और शुक्ल ध्यान होता है तब लेश्या शुद्ध होती है। उस स्थिति में चैतन्यकेन्द्र जागृत हो जाते हैं । चैतन्य केन्द्र हमारी चेतना और शक्ति की अभिव्यक्ति के स्रोत हैं। उन्हें जागत करने की दो पद्धतियां हैं--
१. विशुद्ध लेश्या की भावधारा द्वारा चैतन्य केन्द्र अपने आप जागृत हो जाते हैं।
२. चैतन्य-केन्द्रों पर अवधान नियोजित करने पर भी वे जागृत हो जाते हैं।
महावीर ने इसीलिए अप्रमाद का सूत्र दिया। अप्रमत रहने वाले व्यक्ति की लेश्या शुद्ध होती है, उसके चैतन्य केन्द्र सहज ही जागृत हो जाते हैं
और ये चैतन्य-केन्द्र अप्रमत रहने के आलम्बन भी बनते हैं। सुप्त चैतन्य केन्द्र .पर मन विचरण करता है तब कृष्ण, नील और कापोत लेश्या की भावधारा उभरती है। चैतन्य केन्द्रों के जागृत हो जाने पर तेजस्, पद्म और शुक्ल लेश्या की भावधारा बनती है।
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