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वेतना का वर्गीकरण
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२. ऊप्रभाग--घुटना, छाती, ललाट, उभरे हुए भाग। ३. तिर्यग्भाग-समतल भाग ।
शरीर के अधोभाग में स्रोत हैं, उर्ध्वभाग में स्रोत हैं और मध्यभाग में स्रोत-नाभि है।
हम चक्षु को संयत कर शरीर की विपश्यना करें। उसकी विपश्यना करने वाला उसके अधोभाव को जान लेता है, उसके उर्वभाव को जान लेता है और उसके मध्यभाग को भी जान लेता है।
जो वर्तमान क्षण में शरीर में घटित होने वाली सुख-दुःख की वेदना को देखता है, वर्तमान क्षण का अन्वेषण करता है, वह अप्रमत्त हो जाता
अन्तर्मुख होने की प्रक्रिया
- शरीर-दर्शन की यह प्रक्रिया अन्तर्मुख होने की प्रक्रिया है । सामान्यतः बाहर की ओर प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा को अंतर की ओर प्रवाहित करने का प्रथम साधन स्थूल शरीर है। इस स्थूल शरीर के भीतर तेजस और कर्म-ये दो सूक्ष्म शरीर हैं। उनके भीतर आत्मा है । स्थूल शरीर की क्रियाओं और संवेदनों को देखने का अभ्यास करने वाला क्रमशः तेजस और कर्म-शरीर को देखने लग जाता है। शरीर-दर्शन का दृढ़ अभ्यास और मन के सुशिक्षित होने पर शरीर में प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा का साक्षात्कार होने लग जाता है । जैसे-जैसे साधक स्थूल से सूक्ष्म दर्शन की ओर बढता है वैसे-वैसे उसका अप्रमाद बढ़ता जाता है।
स्थूल शरीर के वर्तमान क्षण को देखने वाला जागरूक हो जाता है। कोई क्षण सुखरूप होता है और कोई क्षण दुःखात्मक । क्षण को देखने वाला सुखात्मक क्षण के प्रति राग नहीं करता और दुःखात्मक क्षण के प्रति द्वेष नहीं करता । वह केवल देखता और जानता है। शरीर-दर्शन का अर्थ
___ शरीर की प्रेक्षा करने वाला शरीर के भीतर से भीतर पहुंचकर शरीर की धातुओं को देखता है और झरते हुए विविध स्रोतों (अंतरों) को भी देखता
देखने का प्रयोग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उसका महत्त्व तभी अनुभूत होता है जब मन की स्थिरता, दृढ़ता और स्पष्टता से दृश्य को देखा जाए। शरीर के प्रकंपनों को देखना, उसके भीतर प्रवेश कर भीतरी प्रकंपनों को देखना, मन को बाहर से भीतर में ले जाने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से मूर्छा टूटती है और सुप्त चैतन्य जागृत होता है। शरीर का जितना आयतन है उतना ही आत्मा का आयतन है। जितना आत्मा का आयतन होता है उतना
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